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चतुर्थ स्तवन कर्म
नम ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको । सम्भव भवदुःखहरण करण अभिनन्दन शर्मको ॥ सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर । पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीति घर ॥१६॥ श्रीसुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकान्ति सम देह कान्तिधर || पुष्पदन्त दमि दोषकोश भविषोष शेषहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोषकर ॥ १७॥ श्रेय रूप जिन श्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन | वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन ॥ विमल विमलमति देय अन्तगत है अनन्तजिन । धर्म - शर्म शिवकरण शान्तिजिन शान्तिविधायिन ॥१८॥ कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जालहर | मल्लि मल्लसम मोहमलमारण प्रचार धर ।। मुनिसुवत व्रतकरण नमल सुरसंघहि नमिजिल । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरत मांहि ज्ञानधन ॥१६॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति । दर्द्धमान जिन नमूं बसूं भवदुःख कर्मकृत ॥ या विधि में जिन संघ रूप चउवीस संख्यधर । स्तवं नमूं हूँ बार-बार बंदू शिव सुखकर ॥२०॥