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कषायको नष्ट कर देता है । सूक्ष्म लोभका उदय ही शेष रह जाता है, तो आत्माकी इस उत्कर्ष स्थितिका नाम सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान है ।
अष्टम गुणस्थानसे श्रेणी आरोहण प्रारम्भ होता है। श्रेणियाँ दो प्रकारकी : - (१) उपशमश्रेणी और (२) क्षपकश्रेणी । जो चारित्रमोहका उपशम करनेके लिये प्रयत्नशील हैं वे उपशमश्रेणीका आरोहण करते हैं और जो चारित्रमोहका क्षय करनेके लिये प्रयत्नशील है वे क्षपकश्रेणीका । क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी और औपशमिक एव क्षायिक दोनो ही सम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणीपर आरोहण कर सकते हैं।
(११) उपशान्तमोहगुणस्थान
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उपशमश्रेणीकी स्थितिमे दशम गुणस्थानमे चारित्रमोहका पूर्ण उपशम करनेसे उपशान्तमोहगुणस्थान होता है । मोह पूर्ण शान्त हो जाता है पर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मोहोदय आजानेसे नियमत इस गुणस्थानसे पतन होता है ।
(१२) क्षीणमोह
मोहकर्म का क्षय संपादित करते हुए दशम गुणस्थानमे अवशिष्ट लोभाशका भी क्षय होनेसे स्फटिकमणिके पात्रमे रखे हुए जलके स्वच्छ रूपके समान परिणामोको निर्मलता क्षीण मोहगुणस्थान है । समस्त कर्मोंमे मोहकी प्रधानता है और यही समस्त कर्मों का आश्रय है, अत. क्षीण मोहगुणस्थान मे मोहके सर्वथा क्षीण हो जानेसे निर्मल आत्मपरिणति हो जाती है ।
(१३) सयोगकेवली गुणस्थान
शुक्लध्यानके द्वितीयपादके प्रभावसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है और आत्मा सर्वज्ञ- सर्वदर्शी बन जाती है । केवलज्ञानके साथ योगप्रवृत्ति रहनेसे यह सयोगकेवली गुणस्थान कहलाता है।
(१४) अयोगकेवली
योगप्रवृत्तिके अवरुद्ध हो जानेसे अयोगकेवलीगुणस्थान होता है । इस गुणस्थानका काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पांच लघु अक्षरोके उच्चारण काल तुल्य है । व्युपरतक्रियानिर्वात शुक्लध्यानके प्रभावसे सत्तामे स्थित पचासी प्रकृतियोका क्षय भी इसी गुणस्थानमे होता है ।
निष्कर्ष --- मानवजीवन के उत्थानके हेतु धर्म और आचार अनिवार्य तत्त्व हैं । आचार और विचार परस्परमे सम्बद्ध है। विचारो तथा आदर्शो का व्यवहारिक रूप आचार है । आचारकी आधारशिला नैतिकता है। वैयक्तिक और
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५४७