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सामाजिक जीवनमें धर्मकी प्रतिष्ठा भी नैतिकताके आधारपर होती है । धर्म और आचार भौतिक और शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नही है, अपितु इनका क्षेत्र आध्यात्मिक और मानसिक मूल्य भी है । ये दोनो ही आध्यात्मिक अनुभूति उत्पन्न करते हैं । आचार वही ग्राह्य है, जो धर्ममूलक है तथा आघ्यात्मिकताका विकास करता है । दर्शनका सम्बन्ध विचार, तर्क अथवा हेतुवादके साथ है। जबकि धर्मका सम्बन्ध आचार और व्यवहारके साथ है । धर्मं श्रद्धापर अवलम्बित है और दर्शन हेतुवादपर । श्रद्धाशील व्यक्ति आचार और धर्मका अनुष्ठान करता हुआ विवारको उत्कृष्ट बनाता है । अतएव आत्मविकासकी दृष्टिसे धर्म और आचारका अध्ययन परमावश्यक है ।
५४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा