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इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्योमे उन्नति करनेकी शक्ति एक-सी न होने के कारण समाजमे आर्थिक दृष्टिसे समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी समस्त मानव समाजको लौकिक उन्नतिके समान अवसर एव अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार स्वतन्त्रताका मिलना आवश्यक है, क्योकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाणका एकमात्र लक्ष्य समाजको आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । यह पूँजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और एक स्थान पर धन सचित होनेकी वृत्तिका निरोध करता है । परिग्रहपरिमाणका क्षेत्र व्यक्तितक हो सीमित नही है, प्रत्युक्त समाज, देश, राष्ट्र एव विश्वके लिए भी उसका उपयोग आवश्यक है । सयमवाद व्यक्तिको अनियन्त्रित इच्छाभोको नियन्त्रित करता है । यह हिंसा झूठ, चोरी, दुराचार आदिको रोकता है ।
परियहके दो भेद हैं- बाह्यपरिग्रह और अन्तरगपरिग्रह। बाह्यपरिग्रहमे घन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएँ परिगणित है । इनके सचयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है । अत श्रमार्जित योग क्षेमके योग्य धन ग्रहण करना चाहिये । न्यायपूर्वक भरण-पोषण की वस्तुओके ग्रहण करनेसे धन सचित नही हो पाता । अतएव समाजको समानरूपसे सुखी, समृद्ध और सुगठित बनाने के हेतु धनका सचय न करना आवश्यक है। यदि समाजका प्रत्येक सदस्य श्रमपूर्वक आजीविकाका अर्जन करे, अन्याय और बेईमानोका त्याग कर दे, तो समाजके अन्य सदस्योको भी आवश्यकताको वस्तुओकी कभी कमी नही हो सकती है ।
आभ्यन्तरपरिग्रहमे काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि भावनाएँ शामिल हैं । वस्तुत सचयशील बुद्धि- तृष्णा अर्थात् असतोप ही अन्तरगपरिग्रह है । यदि बाह्यपरिग्रह छोड़ भी दिया जाय, और ममत्वबुद्धि बनी रहे, तो समाजकी छीना-झपटी दूर नही हो सकती । धनके समान वितरण होनेपर भी, जो बुद्धिमान है, वे अपनी योग्यतासे घन एकत्र कर ही लेंगे और ममाजमें विषमता बनी ही रह जायगी । इसी कारण लोभ, माया, क्रोध आदि मानवीय विकारोके त्यागने - का महत्त्व है । अपरिग्रह वह सिद्धान्त है, जो पूँजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओके अनुचित सग्रहको रोक कर शोपणको बन्द करता है और समाजमे आर्थिक समानताका प्रचार करता है । अतएव सचयशील वृत्तिका नियन्त्रण परम आवश्यक है । यह वृत्ति ही पूजीवादका मूल है ।
तीसरी सीढोका पोषक : संयमवाद
ससारमे सम्पत्ति एव भोगपभोगकी सामग्री कम है । भोगनेवाले अधिक है और तृष्णा इससे भी ज्यादा है । इसी कारण प्राणियोमे मत्स्यन्याय चलता है,
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५८५