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बन पूजा पाठ सद
भावना बारह सदा माऊँ, भाव निर्मल होत है। में व्रत जुबारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना । वसुफम त में छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहं मोहना ॥ ६ ॥ में साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही सौ करो। मै पर्व के उपवास चाहूँ, सब आरम्भे परिहौं । न दुग पमकाल, माही, कुल धावक में लहो । अरु महायन धरि सकी नाही, निवल तन मैंने गहो ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, गुनो जिनरायजी। तुम पानाय अनाय 'चानत', दया करना नाथजी ।। चमुफम नाम विकाग ज्ञान, प्रकाा मोको कीजिये। कार गुगनि गमन समाधिमरण, सुभक्ति चरणन दीजिए ॥ ८॥
मरण भय मरमा प्राणों का नियोग हो जाना हो तो मरण है । पाच सन्दिग, तीन यल, एए भायु और एक चासोच्छवाग इनफा पियोग होते ही मरत होता है। परन्तु पद समापन त, नित्योद्यत और मानस्वरूपी अपने को निन्तपन परता।एर चेतना दो उममा प्राण है। तीन फाल में उसका पियोग नहीं होता । आत चेतनागमो झानात्मा के ध्यान से उसे मरण का भी भय नदी होता। इस प्रकार मात भयों में से यह किसी प्रकार भय नहीं -परता । अतः गम्यग्दृष्टि पूर्णतया निर्भय है।
-'पर्णी वाणी से