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जन पूजा पाठ सह
आराधना पाठ मै देव नित अरहन्त चाहूँ, सिद्ध का सुमिरण करौ । मै सूर गुरु मुनि तीन पद, मैं साधुपद हिरदय धरौ ।। मैं धर्म करुणामयी चाहूँ, जहा हिंसा रश्च ना । मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूं, जासु मे परपञ्च ना ॥ १ ॥ चौबीस श्रीजिनदेव चाहूँ, और देव न मन बसे । जिन बोस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वन्दिते पातिक नसे ॥ गिरिनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी पावापुरी । कैलाश श्रीजिन-धाम चाहूँ, भजत भाजे भ्रम जुरी ॥ २ ॥ नवतत्व का सरधान चाहूं, और तत्व न मन धरौ । षट् द्रव्य गुण परिजाय चाहूँ, ठीक तासो भय हरी ॥ पूजा परम जिनराज चाहूँ, और देव नही सदा । तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहि लागे कदा ॥ ३ ॥ सम्यक्त दरशन ज्ञान चारित, सदा चाहूँ, भावसो । दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ, महा हर्ष उछावसो ॥ सोलह जु कारण दुःख निवारण, सदा चाहूँ प्रीतिसो। मै चित्त अठाई पर्व चाहूँ, महा मङ्गल रीतिसो ॥ ४ ॥ मै वेद चारो सदा चाहूँ, आदि अन्त निवाहसो। पाए धरम के चार चाहूँ, अधिक चित्त उछाहसो । मैं दान चारो सदा चाहूँ, भुवन वशि लाहो लहूँ। आराधना मैं चारि चा, अन्त मे जेई गहूँ॥ ५॥