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जीवन श्रेष्ठ हो सकता है तथा परिवार और समाजमे वात्सल्यको स्थायित्व प्राप्त हो सकता है। एकता और शान्तिका विकास भी सेवाभावनाद्वारा किया जा सकता है । यह प्राय देखा जाता है कि गुणग्राही होना ससारमे कठिन है। गुणग्राहिता ही सेवाभावनाको उत्पन्न करती है। देखा जाता है कि गुणीजन एक-दूसरेसे आपसमे हो द्वेष करते हैं, फलस्वरूप कपायभाव उत्पन्न होते है।
दीन-दुखियोको सेवा करना, किसीसे घृणा न करना, परस्पर उपकारकी भावना रखना ही मानवता है और इसीसे परिवार एव समाजकी स्थिति सुदृढ होती है । अहिंसक भावना ही सेवाभाव है, इसे किसी पाठशालामे सीखा नही जाता है, यह तो प्रत्येक आत्मामे वर्तमान है।
ममस्त सफलताओके मूलमे सेवा हो कार्यकारी है। इसके स्पर्शसे निर्जीव कोयला अग्निका रूप धारण करता है और अवरुद्ध जल वेगवान निर्झर वन जाता है । साधारण-से-साधारण प्रतिभा सेवाभावनाके वलसे सक्रियता प्राप्त कर लेती है । सेवावृत्ति कदाचित् किसी मन्द व्यक्तिको भी प्राप्त हो जाय, तो उसकी भी सुषुप्त शक्ति जागृत हो उठती है और वह अग्निपुंज बन जाता है । सेवाकी उपलब्धि एक सद्गुणके रूपमे होती है ।
सेवा या वैयावृत्ति सफलताका आधारभत उपादान है, यह कर्मके सभी रूपोमे मौलिकतत्त्व है। सेवा और महयोगके विना परिवार और समाजकी कल्पना ही सभव नही है।
"व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्"-रोगादिसे व्याकुल साधुके विषयमे जो कुछ किया जाता है, वह वैयावृत्य है। यह तप है, यत सेवा या वैयावृत्ति साधारण वात नही है । इसके लिए अहकारका त्याग, नि स्वार्थ प्रेम, दया और करुणा वृत्तिका सद्भाव आवश्यक है। सोने-वैठनेके लिए स्थान देना, उपकरण शाधन करना, निर्दोष आहार-औषध देना, व्याख्यान करना, अशक्त मुनि, सामाजिक या पारिवारिक सदस्यका मल-मूत्र उठाना, उसकी गेगीकी स्थितिमे सेवा करना, हाथ-पैर-सिर दवाना एवं विपत्तिमे पडे हुमोका उद्धार करना आदि वैयावृत्ति-सेवामे परिगणित है। __ सेवा या वैयावृत्तिके समय परिणामोको कलुषित न होने देना, स्वार्थभाव या प्रत्युपकारबुद्धिका त्याग करना, परिणामोमे कोमलता और आर्द्रता रखना तथा सेवा करते हुए प्रसन्नताका अनुभव करना आवश्यक है। निःस्वार्थभावसे की गयी सेवा आत्मशुद्धिका कारण बनती है। यह वासनाओंके क्लेशसे
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५५७