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________________ जैन पूजा पाठ सग्रह ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जड़ कर्म घुमाता है मुझको यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी । मैं रागीद्वेषी हो लेता, जव परिणति होती है जड़ की। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया। ही देवगावगुरुभ्योऽष्टर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। में आकुलव्याकुल होलेता, व्याकुलका फल व्याकुलता है। में शान्त निराकल चेतन है, है सक्तिरमा सहचर मेरी। यह मोह तड़प कर टूट पड़े,प्रभुसार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ हीं देवगान्त्रमुग्भ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ क्षण भर निजरसको पी चेतन,मिथ्या सलको धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनंद अमृत पीता है। अनुपम सुख तव विलसित होता,केवल रवि जगमग करता है दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, येही अर्हन्त अवस्था है। यह अर्घ समर्पण करके प्रभ, निजगनका अर्घ बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सदृशप्रभु! अर्हन्त अवस्था पाऊंगा * ही देवगावरुभ्योऽनयपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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