________________
छीना-झपटी चलती है और चलता है संघर्ष । फलत. नाना प्रकारके अत्याचार और अन्याय होते है, जिनसे अहर्निश अशान्ति बढती है । परस्परमे ईर्ष्या-द्वेषकी मात्रा और भी अधिक बढ जाती है, जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको आर्थिक उन्नति के अवसर ही नही मिलने देता। परिणाम यह होता है कि सघर्ष और अशान्तिकी शाखाएँ बढकर विषमतारूपी हलाहलको उत्पन्न करती है।
इस विषको एकमात्र औषध सयमवाद है । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओ, कषायो और वासनाओ पर नियन्त्रण रखकर छोगा-झपटीको दूर कर दे, तो समाजसे आर्थिक विषमता अवश्य दूर हो जाय। और सभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकते हैं । यह अविस्मरto है कि आर्थिक समस्याका समाधान नैतिकताके विना सम्भव नहीं हैं। नैतिक मर्यादाओका पालन हो आर्थिक साधनोमे समीकरण स्थापित कर सकता है । जो केवल भौतिकवादका आश्रय लेकर जीवनको समस्याओको सुरझाना चाहते हैं, वे अन्धकार है । आध्यात्मिकता और नैतिकता के अभाव मे आर्थिक समस्याएँ झ नही सकता है |
सयमके भेद और उनका विश्लेषण - सयमके दो भेद हैं- ( १ ) इन्द्रियसयम और (२) प्राणिसयम । सयमका पालनेवाला अपने जीवनके निर्वाहके हेतु कम-सेकम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे अवशिष्ट सामग्री अन्य लोगोके काम आती है और सर्प कम होता है । विषमता दूर होती है । यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे, तो दूसरोके लिये सामग्री कम पडेगी तथा शोपणका आरम्भ यहीसे हो जायगा । समाजमे यदि वस्तुओका मनमाना उपभोग लोग करते रहे, सयमका अकुश अपने ऊपर न रखें, तो वर्ग-सघर्ष चलता ही रहेगा । अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करने के लिये इच्छाओ और लालसाओका नियंत्रित करना परम आवश्यक है तभी समाज सुखी और समृद्धिशाली बन सकेगा ।
अन्य प्राणियोको किंचित् भी दुःख न देना प्राणिसयम है । अर्थात् विश्वके समस्त प्राणियोकी सुख-सुविधाओ का पूरा-पूरा ध्यान रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजके प्रति अपने कर्त्तव्यको सुचारूरूपसे सम्पादित करना एव व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको त्याग कर समस्त प्राणियोके कल्याणकी भावना से अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिसयम है । इतना ध्रुव सत्य है कि जब तक समर्थ लोग सयम पालन नही करेंगे, तब तक निर्बलोको पेट भर भोजन नही मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही ऊंचा हो सकेगा । आत्मशुद्धिके साथ सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ करना और शासित एव शासक या शोषित एव शोषक इन वर्गभेदोको समाप्त करना भी प्राणिसंयमका लक्ष्य है ।
५८६ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य- परम्परा