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कर एकता और नियमितता प्रदान करे । वास्तवमे धर्म जीवनका एक ऐसा तरीका है जो कार्यों और क्रियाओको सयोजित और नियमित करता है। धर्मके अभावमे मानव का जोवन मनुष्य-जीवन नही रह जाता है, अपितु वह पशुजीवनकी कोटिमे सम्मिलित हो जाता है। ___ मानव-जीवनमे चरित्रका अपना स्थान है। जीवनको ऊंचाई केवल ज्ञान या विश्वाससे नही आंकी जा सकती। दिव्यताको ओर होनेवाली यात्राका मुख्य मापदण्ड आचार ही है। दैनिक जीवनमे यह सभीको दिखलाई पडता है कि विश्वाम और ज्ञान तबतक जीवनमे साकार नही हो पाते, जबतक मनुष्य अपने आचार-व्यवहारको मानवोचित रूप प्रदान नहीं करता। सन्तोष, क्षमा, मात्म-संयम, इन्द्रिय-निग्रह, दया, अहिंसा और सत्य ऐसे मार्ग हैं, जिनका अनुसरण करनेसे व्यक्ति और समाज मुम-शान्ति प्राप्त करता है। ___ मनुप्यको विविध रुचियो, इच्छाओ, सघर्षात्मक आवश्यकताओ एव उत्तरदायित्वोके वीच सामञ्जस्य उत्पन्न करनेका कार्य आचारात्मक धर्म ही करता है। व्यक्ति या समाजके विभिन्न मदस्य जव धर्मके निर्देशानुसार अपने करणीय कत्र्तव्यको निश्चित ढगसे तथा निष्ठापूर्वक करते है, तो समाजमे सुव्यवस्था, शान्ति और समृद्धि सरल हो जाती है। अर्थ और कामका नियन्त्रक भी धर्म है। केवल अर्थ और केवल काम जीवनमे भोग तो उत्पन्न कर सकते हैं, पर जीवनको उदात्त नही बना सकते । अतएव मानव-जीवनका साफल्य नियन्त्रण, निग्रह, त्याग और सन्तोषपर ही निर्भर है।
ससार एक अनन्त अविगम प्रवाह है और नाना जीव इस प्रवाहमे अनादि कालसे अनन्तकाल तक धर्मविमुग्व हो लुढकते और टक्करें खाते रहते हैं। जीवनकी गति कही भी विधान्ति प्राप्त नहीं करती। सदाचार, विश्वास और तत्त्वज्ञान हो मानव-जीवनमे व्यवस्था, शान्ति और बन्धनोसे मुक्ति कराते हैं। क्षणिक जीवनके बदले गाश्वत जीवनका लाभ होता है और ससारके निस्सार सुख-दुखोसे ऊपर उठकर आत्मा अनन्त सुखमयमुक्तिका लाभ करती है। अत सक्षेपमे जीवनको सुव्यवस्थित और नियन्त्रित करनेके लिए धर्मको परम नावश्यकता है। धर्म :व्युत्पत्ति एवं स्वरूप
धर्मशन्द + मन्मे निष्पन्न है। "धीयते लोकोऽनेन, घरति लोक वा धर्म अथवा इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्म" अर्थात् जो इष्ट स्थान-मुक्तिमे धारण कराता है अथवा जिसके द्वारा लोक श्रेष्ठ स्थानमे धारण किया जाता है अथवा जो लोकको श्रेष्ठ स्थानमे धारण करता है, वह धर्म है। धर्म सुखका कारण है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४८७