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धर्म और सुखमे कार्य-कारणभाव या दीपक और प्रकाशके समान सहभावीभाव है, अर्थात् जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नही, वहाँ प्रकाश भी नही रहता। इसी प्रकार जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख अवश्य रहेगा और जहाँ धर्म नही होगा वहाँ सुख भी नही रहेगा।
जो धारण किया जाय या पालन किया जाय, वह धर्म है। धर्मका एक अर्थ वस्तुस्वभाव भी है। जिस प्रकार अग्निका धर्म जलाना, जलका शीतलता, वायुका बहना धर्म है, उसी प्रकार आत्मा का चैतन्य धर्म है। वस्तुस्वभावरूप धर्म है तो यथार्थ पर इसकी उपलब्धि आचारके बिना सम्भव नही । जिस आचार द्वारा अभ्युदय और नि.श्रेयस-मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म कहलाता है। अभ्युदयका अर्थ लोक-कल्याण है और नि.श्रेयसका अर्थ कर्मबन्धनसे मुक्त हो स्वस्वरूपकी प्राप्ति है।
स्वभावरूप धर्म जड और चेतन सभी पदार्थोमे समाविष्ट है, क्योकि इस विश्वमे कोई ऐसी वस्तु नही है, जिसका कोई न कोई स्वभाव न हो, पर आचाररूप धर्म केवल चेतन आत्मामे पाया जाता है। अत: धर्मका संबंध आत्मासे है। वस्तु स्वभावका विवेचन चिन्तनात्मक होनेसे दर्शन-केटिमें भी प्रविष्ट हो जाता है और आत्मा, लोक-परलोक, विश्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व प्रभृति प्रश्नोका उससे समाधान अपेक्षित हाताहै । वस्तुत. धर्म आत्माकोपरमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है । इस मार्गके निरूपणक्रममे द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्व आदिके स्वभावकी जानकारी भी आवश्यक है। ज्ञाता व्यक्ति ही सम्यक् आचार द्वारा आत्मासे परमात्मा वननेके मार्गको प्राप्त करता है। जिस प्रकार कुशल स्वर्णकारको स्वर्णके स्वभाव और गुणकी भली-भांति पहचान होती है, तथा स्वर्णशोधनकी प्रक्रिया भी जानता है, वही स्वर्णकार स्वर्णको शुद्ध कर सकता है। इसी प्रकार जिस आत्म-शोधकको आत्मा और कर्मोके स्वरूप तथा विभावपरिणतिजन्य उनके सयोगकी जानकारी है वही आत्मा परमात्मा बननेमे सफल होतो है। मनुष्यके विचार भी आचारसे निर्मित होते है और विचारोंसे निष्ठा या श्रद्धा उत्पन्न होती है।
धर्मकी उपयोगिता कर्मनाश और प्राणियोको ससारके दु खसे छुडाकर सुख प्रासिके लिए है। इस सुखकी प्राप्ति तबतक सम्भव नही है जबतक कर्मबन्धनसे छुटकारा प्राप्त न हो । अत. जो कर्म-बन्धका नाशक है वह धर्म है। संसारमे जो सुख है जिसे हम ऐन्द्रयिक सुख कहते हैं वह भी यथार्थमे सुख नहीं है।' सुखकी प्राप्ति और दु खसे छुटकारा कर्म-बन्धनका नाश किये बिना सम्भव नहीं ४८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा