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नहि अनंग जो होहिं तु तुमसे तुम गुण चरण संत | जो अनको आप समान, कन नो निति धनवान || इक्टक जन तुमको अपिलीय अवरति क न सोय | को कर छोर जलधि जल पान, चार नीर पी मतिमान || प्रभु तुम वीतराग गुन लीन, जिन परमानु देह तुम कीन । हें तितने हो ते परनानु या तुम नम रूप न आनु ॥ कई तुम ग्य अनुपम अधिकार, सुर-तर-नाग-नयन-मनहार | कहां नेद्र मंडल सफलंफ, दिनमे टाक-पत्र राम क ॥ पूरन चंद्र ज्योति दवियंत, तुम गुन तीन जगत लंपंत । एक नाथ त्रिपन आधार, तिन विचारत को करें निवार || जो गुरु-तिय विश्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ | अचल चला प्रलय नमी, मेरु-शिखर डगमगे न धीर ॥ धूमरहित पानी गत नेह, परकारी निशुवन-घर एह । वात-गम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम चलो अमंड || छिप न प गएकी छांहिं. जग-परकाशही छिनमांहिं । धन अपने दाह निनिवार, रवि अधिक घरो गुणसार || सदा उदिन विदलित मनमोर चिटिन नेह राह अवरोह । तुम मुसकमल अपच चंद, जगत विकाशी जोति अमंद ॥ निश-दिन शशिरनिको नहि काम, तुम मुख-चंद हरे तम-धाम | जो स्वभावत उपजे नान, मजल गेघ तो कौन काज ॥ जो सुबोध मोहे तुममाहिं, हरि नर आदिकर्म सां नाहि ॥ जो दुति महान्तन में होय, कांच-संड पावै नहिं मोय ॥ नाराच हुँद सराग देव देस में गला विशेष मानिया | स्वरूप जाहि देस वीतराग तू पिछानिया |
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