SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. जीवनका आर्थिक अंग । २. जीवनका सामाजिक अग । आर्थिक दृष्टिसे मनुष्यके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्यविशेष महत्त्वपूर्ण हैं और सामाजिक दृष्टिसे मनुष्यके परिवार तथा समाज सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्य भी कम महत्त्वपूर्ण नही हैं । अधिकारो तथा कर्त्तव्योका आर्थिक दृष्टिसे सतुलित रूपमे प्रयोग अपेक्षित है । पुरुषार्थो के क्रममे अर्थपुरुषार्थको इसीलिए द्वितीय स्थान प्राप्त है कि इसके बिना धर्माचरण एव कामपुरुषार्थका सेवन सम्भव नही है | आज आर्थिक प्रगतिके अनेक साधन विकसित है पर कर्त्तव्यपरायण व्यक्तिको अपनी नैतिकता बनाये रखना आवश्यक है । जीवनको आवश्यकताओके वृद्धिंगत होने और आर्थिक समस्याओके जटिल होने पर भी उत्पादन, वितरण और उपयोग सम्बन्धी नैतिक नियम जीवनको मर्यादित रखते है । सुरक्षा और आत्मानुभूति ये दोनो ही नैतिक जीवनके लिए अपेक्षित हे । श्रम-सिद्धान्त भी प्रगतिके नियर्मोको अनुशासित करता है । अत सम्पत्तिके प्रति दो मुख्य कर्त्तव्य है -१ सम्पत्ति प्राप्त करनेके लिए कर्म करना और २. उपलब्ध सम्पत्तिका सदुपयोग करना । जो व्यक्ति किसी भी प्रकारका कर्म नही करता, उसका कोई अधिकार नही कि वह निष्क्रिय होते हुए भी सामाजिक सम्पत्तिका भोग करे । इस कर्त्तव्यके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए श्रम करना अत्यावश्यक है। श्रम करनेसे ही श्रमणत्वकी प्राप्ति होती है और इसी श्रम द्वारा आश्रमधर्मका निर्वाह होता है । जो व्यक्ति अन्यके श्रम पर जीवित रहता है और स्वय श्रम नही करता ऐसे व्यक्तिको समाजसे कुछ लेनेका अधिकार नही । जो कर्त्तव्यपरायण है वही समाजसे अपना उचित अश प्राप्त करनेका अधिकारी है । विवेक, साहस, सयम और न्याय ये ऐसे गुण हैं जो सामाजिक कल्याणकी ओर व्यक्तिको प्रेरित करते हैं । इन गुणोके अपनानेसे परिवार और समाजकी विषमता दूर होकर प्रगति होती है तथा समानताका तत्त्व प्रादुर्भूत होता है । समाजके गतिशील होने पर साहस, सयम और विवेकका आचरण करते हुए कर्त्तव्यकर्मो का निर्वाह अपेक्षित होता है । ज्यो -ज्यो समाजिक विकास होता है, अधिकारो और कर्त्तव्योका स्वरूप स्वतः ही परिवर्तित होता चला जाता है । इसी कारण प्रत्येक समाजमे व्यवस्था, विधान और अनुशासनकी आवश्यकता रहती है । यदि अधिकार और कर्त्तव्योमे सतुलन स्थापित हो जाय, तो समाजमे अनुशासन उत्पन्न होते विलम्ब न हो । ५६६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy