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मगसिर अलि दशमी पवित, चट चन्द्रपभा शिविका विचित्र । चलि पुर सो सिद्धन शीरानाय, धारो सजम वर शर्मदाय ॥ ४ ॥ गत वर्ष दुदरा कर तप विधान, दिन शित वैशाख दशै महान । रिजुकूला सरिता तट स्व सोध, उपजायो जिनवर चमर बोध ॥ ५ ॥ तब ही हरिआज्ञा शिर चढाय, रवि समवशरण वर धनदगय । चउसंघ प्रति गौतम गणेन युत तीस वर्ष विहरे जिनेश ॥ ६ ॥ भविजीव देशना विविध देश, आये वर पावानगर खेत । कार्तिक अलि अन्तिम दियत ईस, कर गोग निरोध अघाति पीस ॥ ७ ॥ ह सिद्ध अमल इक समग माहि, पजम गति पाई श्री जिनाह । तव सुरपति जितरवि भरत जान, माये तुरन्त चढि निज विमान ॥ ८ ॥ कर वपु अरचा युति विविध भांत, ले विविध द्रव्य परिमल विरयात । तब ही अगणीन्द्र नवाय पीत, सस्कार देह की विजगदीश ॥ ९ ॥ कर भस्म वन्दना निज महीय, निवसे प्रभु गुण चितवन स्वहीय । पुनि नर मुनि गणपति आय-आय, वदी सो रज शिर नाय-नाय ॥१०॥ तवही सो सो दिन पूज्य मान, पूजत जिनगृह जन हर्प मान । मैं पुन-पुन तिस भुवि शीश धार, बन्दी तिन गुणधर उर मझार ॥११॥ तिनही का अब भी तीर्थ एह, बरतत दायक अति शर्म गेह । अरु दुःखमकाल अवसान ताहि, वर्तगो भव तिथि हर सदाहि ॥१२॥
कुसुमलता छन्द। श्रीसन्मति जिन अघ्रिपद्म यग जज भव्य जो मन वच काय। ताके जन्म-जन्म संचित अघ जावहि इक छिन माहिं पलाय ॥ धन धान्यादिक शर्म इन्द्रपद लहै सो शर्म अतीन्द्री थाय । अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी दौल रहै शिर नाय ॥
ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो महाघम् निर्वपामीति स्वाहा ।