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मनवांछित फल जिनपदमाहिं, मैं पूरव भव पूजे नाहि । मायामगन फिस्यो अज्ञान, करहि रंकजन मुझ अपमान ॥ मोहतिमिर छायो ग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि । तौ दुर्जन मुझ संगति गहैं, मरमछेद के कुवचन कहैं ।। । सुन्यो कान जम पूजे पाय, ननन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित्त चाव, दुःखदायक किरिया विन भाव ॥ महाराज शरणागत पाल, पतित उधारण दीनदयाल सुमिरण करहुँ नाय निज शीश, मुझ दुःख दूर करहु जगदीश ।। कर्म निकन्दन महिमा सार, अशरणशरण सुजस विस्तार । नहिं सेये प्रभ तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥, सुरगणवन्दित दयानिधान, जगतारण जगपति अनजान । दुःख सागरते मोहि निकासि, निर्भयथान देहु सुखरासि ।। मैं तुम चरणकमल गुणगाय, बहुविधि भक्ति करी मनलाय।'
जनम-जनम प्रभु पाऊ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि ॥ - इह विधि श्रीभगवन्त, सुजस जे भविजन भाषहिं। ते जिन पुण्य भण्डार, संचि चिरपाप प्रणाशहिं । रोम-रोम हुलसन्ति, अंग प्रभु गुणमन ध्यावहिं। स्वर्ग सम्पदा भुञ्ज वेग पञ्चमगति पावहिं॥ यह कल्याणमन्दिर कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि । भाषा कहत 'बनारसी' कारण समकित शुद्धि ॥४४॥