________________
१६०
जैन
पूरा गठ संग्रह
·
t
जे दुर्जन को नहीं जान देय ते निन्दक को ना दर देव | चन्द्र प्रभु के चौक माहि, दालाने वहां चौतर्फ आहि ॥ ११ ॥ वहां मध्य सभा मण्डप निहार, तितकी रचना नाना प्रकार | तहाँ चन्द्र के दरश पाप, फल जात लहो तर जन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल वहां हाथ साव. कायोत्सर्ग हुद्रा तुहाव | बन्दे पूछें तहां देवदान, जननृत्य सजत कर मधुर गान ॥ १३ ॥ ता धेरै धेरै धेरै वाजत सितार, मृदङ्ग बीन मुहार । तिनकी ध्वनि तुनि भवि होत प्रेम, जयकार करत नाहत एव ॥ १४ ॥ ते स्तुति करके फिर नाय शीस, भवि चले तो करीत । इह सोनागिरि रचना अपार, वर्णन कर को कवि हे पार ॥ १५ ॥ अति तक वृद्धि 'आशा' तुरार. वत भक्ति कही इतनी गा । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार, बुद्धिवान चूक लीजे सुधार ॥ १६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि णिक्षेत्रयो नहायानीति स्वाहा।
दोहा - सोनागिरि जयमालिका, लघुमति कहो बताय । प्रीतले, तो तर शिवपुर जाय ॥
पढे सुने जो
इत्पदः ।