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२५.
जन पूजा पाठ अप्रह
कर्म वेदनी नारा गया है, निरवाधा गुण प्रगट भया है। मोह कर्म नाशा दुःखकारी, निर्मल छायक दरगन धारी ||२|| आयु-कर्म थिति पर्व विनाशी, अवगाह गुण अटल प्रकानी । नाम-कर्म जीता जग नामी, चेतन जोत अमृरति म्यामी ॥४॥ गोत्र-कर्म पाता वरवीरं, सिद्ध अगुरु लघु गुण गम्भीरं । अन्तराय दुःखदाय हरा है, बल अनन्त परकाश करा है ॥५॥ जा पद मांहि सर्वपद छाजै, ज्यों दर्पण प्रतिबिंब विराजें। राग न दोप मोह नहि भावे, अजर अमर अब अचल सुहाये ।।६।। जाके गुण सुर नर सब गावे, जाको जोगीश्वर नित ध्यावे । जाकी भगति मुकति पद पावै, सो शोभा किह भांति बतावै ॥७॥ ये गुण आठ थूल इम भाखे, गुण अनन्त निज मनमें राखे । सिद्धनकी थुतिको कर जाने, या मिस सो शुभ नाम बखाने ।।८।।
सोरठा। वह विधि नाम बखान, परमेश्वर सवही भजें। ज्यों का त्यों सरधान, घानत से0 ते बड़े ॥६॥ ॐ ही श्री णमो सिद्धान सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविनागनाय अत्यं० ।
ज्ञान . आँख वही है जिसमें देखने की शक्ति हो अन्यथा उसका होना न होने के तुल्य है। इसी तरह ज्ञान वही है जो 'स्व' और 'पर' का विवक करा देवे, अन्यथा उन ज्ञान का कोई मूल्य नहीं ।
-'वर्णी वाणो' से