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________________ जग ५। ५101 - - अन्तरायकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । भूप दिलाचे दर्व को, भण्डारी दे नाहिं । होन देय नहिं सम्पदा, अन्तराय जगमाहिं ॥१॥ चौपाई। छती वस्तु दे मर्क न प्राणी, दान अन्तराय विधि जानी। उद्यम कर न होय कमाई, लाभ अन्तराय दुःखदाई ॥२॥ भोजन त्यार सान नहिं पावै, भोग अन्तराय जब आवै । पट भूपण है पहिरत नाही, उपभोग अन्तराय की छाही ॥३॥ तन वर पोख रल नहिं होई, गीर्य अन्तराय है सोई। इह विधि अन्तराय विवहारी, निश्चय बात मनो मति धारी ॥४॥ मिध्याभाव त्याग सो दानं, समताभाव लाभ परधानं । आतमीक सुख भोग मजोगं, अनुभौउभ्याम मदा उपभोग ॥१॥ भ्यान ठानकै कर्म चिनाम, सी धीरज निज भाव प्रकामै : पांचों भाव जहाँ नहिं लहिये, निश्च अन्तराय मो कहिये ॥६॥ अन्तराय पांचों हत, शगट्यो सुवल अनन्त । द्यानत सिजनमो सदा,ज्यों पाऊँसव अन्त ॥१॥ आधी मी पमाण मिझपरमेष्टिभ्यो अन्नरायकर्मविनाशनाय अध्यं । __ आठ कमनाशक सिद्ध जयमाला । सोरवा .. आठ करल को नाश, आठों शृण परगट भये। सिद्ध सदा सुखरास, करों आरती भावतों ॥१॥ चोपाई। ज्ञानावरणी कम विनाश, लोकालोक ज्ञान परकाशै। दस्शन आवरणी छय कीनी, दुःस सुगुण परजय लसिलीनी ||२|
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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