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जैन पूजा पाठ मह
वैराग्य भावना दोहा - बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यो चक्री तृप सुख करें, धर्म वितारै नाहिं ॥
योगीरासा छन् ।
इह विधि राज करै नायक, भोगे पुण्य विशालो । सुखसागर में रमत निरन्तर जात न जान्यो कालो ॥ एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वन्दे । देखे श्रीगुरु के पदपङ्कज, लोचन अलि आनन्दे ॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, करि पूजा धुति कीनी । साधु समीप विनय कर बैठ्यो, चरणन में दिठि दीनी ॥ गुरु उपदेश्यो धर्म- शिरोमणि, सुन राजा वैरागे । राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस वेरस लागे ॥ सुति सूरज कथनी किरणावलि, लगत भरम बुधि भागी । भवतत भोगस्वरूप विचारों, परम धरम अनुरागी ॥ इह संसार महावन भीतर असते ओर न आवै । जासुत मरण जरा दो दा जीव महा दुःख पावे || कबहूँ जाये नरक थिति भुंजे, छेदन भेदन भारी । कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, बध बन्धन भयकारी ॥ सुरगति में परसम्पति देखे, राग उदय दुःख होई | मानुष योनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संरोगी । कोई दीन दरिद्री विशुचे. कोई तन के रोगी ॥ किलही घर कलिहारी नारी कै बैरी सम भाई |