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किसही के दुःख बाहिर दीसै, किसही उर दुचिताई ॥ कोई पुत्र विना नित झरे, होय मरे तब रोवे । खोटी संततिसो दुःख उपजै, क्यों प्राणी सुख सोवै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुखसाता । यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुःखदाता | जो संसार विषै सुख होतो. तीर्थंकर क्यों त्यागे । काहे को शिव साधन करते, संजस सों अनुराग ॥ देह अपावन अथर घिनावन, यामैं सार न कोई सागर के जलसो शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥ सात कुधातु भरी मल सूरति, चाल लपेटी सोहे : अन्तर देखत या सम जगमें, और अपावन को है । नवमलद्वार सबै निशिवासर, नाम लिये घिन आवे । व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तह, कौन सुधी सुख पावे ॥४ पोषत तो दुःख दोष करै अति, सोबत सुख उपजावै । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, सूरख प्रीति बढ़ावे ॥ राचनजोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है । यह तन पाय महा तप कीजै, या सार यही है । भोग चुरे भव रोग बढ़ावे, वैरी है जग जीके ! बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लार्गे नीके ! वज्र अग्नि विषसे विषधरसे, ये अधिके दुःखदाई । धर्मरतन के चोर चपल अति दुर्गति पंथ सहाई ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कञ्चन माने ॥
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