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ज्यों-ज्यो भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंक, लहर जहर की आवै । मैं चक्रीपद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे। तो सी ललक सये नहिं पूरण, भोग मनोरथ मेरे ॥ शराज ललाज नहा अधकारण, वर बढ़ावन हारा। वेश्यालम लछमी अति चञ्चल, याका कौन पत्यारा ॥ मोह महारिपु वैर विचास्यो, जगजिय सङ्कट डारे । 'घर कारागृह बनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे । सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तप, ये जिय के हितकारी। येही लार असार और सब, यह चक्री चित्तधारी ॥ छोड़े चौदह रत्न नबोंनिधि अरु छोड़े संग साथी॥ कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी । सहस छियानवे रानी छोडी, अरु छोडा घर बारा । सकल अवस्था ऐसे त्यागी, ज्यो जल बीच बतासा ॥ इत्यादिक सम्पत्ति बहुतेरी, जीरणतृण सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुतकी, राज दियो बड़भागी ॥ होय निःशल्य अनेक पति संग, भूषणवसन उतारे। श्रीगुरु चरण धरी जिन मुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ क्से वन, तिनपद धोक हमारी ।। दोहा-परिग्रह पोट उतार सब, लीनों चारित पंथ ।
निज स्वभावमें थिर भये, बज्रनाभि निरग्रन्थ