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फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांचं, भूसिद्ध एक राजू जु साँच। दश चार ऊंच राजू गिनाय, षट द्रव्य लये चतुकोण पाय ॥७॥ तसु वातवलय लपटाय तीन, इह निराधार लखियो प्रवीन । त्रसनाड़ी तामधि जान खास, चतुकोन एक राजू जु व्यास ॥८॥ राज उतंग चौदह प्रमान, लखि स्वयं सिद्ध रचना महान । तामध्य जीम बस आदि देय, निज थान पाय तिष्ठै भलेय ॥६॥ लखि अधोभाग में वभ्रथान, गिन सात कहे आगम प्रमान । पट थान माहिं नारकि बसेय, इक श्वभ्रभाग फिर तीन भेय ॥१०॥ तसु अधोभाग नारकि रहाय, पुनि ऊर्ध्वभाग द्वय थान पाय । जस रहे भवन व्यन्तर जु देद, पुर हर्म्य छजै रचना स्वमेव ।।११॥ सिंह थान गेह जिनराज भाख, गिन सात कोटि बहत्तरि जु लाख । ते भवन नमों मन वचन काय, गति सम्रहरण हारे लखाय ॥१२॥ पुनि मध्यलोक गोला अकार, लखि दीप उदधि रचना विचार । गिन असंख्यात साखेजु सन्त, लखि संभुरमण सबके जु अन्त ॥१३ इक राजु व्यास में सर्व जान, मधिलोक तनों इह कथन मान । सव मध्य द्वीपजम्ब गिनेय, त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥१४॥ इन तेरह में जिन-धाम जान, शत चार अठावन है प्रमान । खग देव असुर नर आय-आय, पद पूज जांय शिर नाय-नाय ॥१॥ जय ऊर्ध्वलोक सुर कल्पवास, तिहं थान छजै जिन-भवन खास । जय लाख चौरासी पर लखेय, जय सहससत्यानव और ठेय ॥१६॥ जय वीस तीन पनि जोड देय, जिन-भवन अकीर्तम जान लेय । प्रतिभवन एक रुचना कहाय, जिनबि एक शत आठ पाय ॥१७॥