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यदि हम समाजके प्रत्येक सदस्यके साथ समता, सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करें, तो समाजके विकासमे अवरोध पैदा नही हो सकता है ।
तीर्थंकर महावीरने समाज व्यवस्थाके लिये दया, सहानुभूति, सहिष्णुता और नम्रताको साधनके रूपमे प्रतिपादित किया है। ये चारो ही साधन वर्त्तमान समाज-व्यवस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । समाजके कष्टोके प्रति दया एक अच्छा साघन है। इससे समाजमे एकता और बन्धुत्वको भावना उत्पन्न होती है । तीर्थंकर महावीरका, सिद्धान्त है कि दयाका प्रयोग ऐसा होना चाहिये, जिससे मनुष्य दयनीयता की भावना उत्पन्न न हो और दया करनेवालोमे अभिमानकी भावना जागृत न हो । समाज-व्यवस्थाके लिये दया, दान, सयम और शील आवश्यक तत्त्व हैं । इन तत्त्वो या गुणोसे सहयोगकी वृद्धि होती है । समाजकी समस्त विसंगतियाँ एव कठिनाईयाँ उक्त साधनो द्वारा दूर हो जाती है ।
सहिष्णुता की भावना को भी समाज गठनके लिये आवश्यक माना गया है । मानव समाज एक शरीरके तुल्य है । शरीरमे जिस प्रकार अंगोपाग, नस, नाड़ियाँ अवस्थित रहती है, पर उन सबका सम्पोषण हृदयके रक्तसचालन द्वारा होता है, इसी प्रकार समाजमें विभिन्न स्वभाव और गुणधारी व्यक्ति निवास करते हैं । इन समस्त व्यक्तियोकी शारीरिक एव मानसिक योग्यताए भिन्न-भिन्न रहती हैं, पर इन समस्त सामाजिक सदस्योको एकताके सूत्रमे अहिंसा के रूप प्रेम, सहानुभूति, नम्रता, सत्यता आदि आबद्ध करते है । नम्रता और सहानुभूतिको कमजोरी, कायरता और दुरभिमान नही माना जा सकता । इन गुणोका अर्थ हीनता नही, किन्तु आत्मिक समानता है । भौतिक बडप्पन, वर्गश्रेष्ठता, कुलीनता, धन और पदवियोका महत्त्व आध्यात्मिक दृष्टिसे कुछ भी नही है । अतएव समाजको अहिंसात्मक शक्तियो के द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है | अहिंसक आत्मनिग्रही बनकर समाजको एक निश्चित मार्गका प्रदर्शन करता है । वास्तवमे मानव समाजको यथार्थं आलोककी प्राप्ति राग-द्वेष और मोहको हटानेपर ही हो सकती है । अहिसक विचारोके साथ आचार, आहार-पान भी अहिंसक होना चाहिए ।
कर्त्तव्य-कर्मोका सावधानी पूर्वक पालन करना तथा दुर्व्यसन, द्यून क्रीडा, मासभक्षण, मदिरापान, आखेट, वेश्यागमन, परस्त्रो सेवन एव चौर्यकर्म आदिका त्याग करना सामाजिक सदस्यताके लिये अपेक्षित है ।
धन एव भोगोंकी आसुरी लालसाने व्यक्तिको तो नष्ट किया ही है, पर अगणित समाजोको भी बर्वाद कर डाला है । आसुरी वासनाओकी तृप्ति एक
६०२ · तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा