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छप्पन दिन छद्मस्थ रहे जिन चार घातिया चर ।
ज्ञान लहि सर्व लखायोजी जिनके ॥ मुण० ॥ समवशरण की महिमा राजे श्रीमण्डप सुखकार । रतन सिंहासन ऊपर प्रभुजी पद्मासन निरधार | तीन छत्र सिर ऊपर राजे चौसठि चामर सार || जिनके सन्मुस ठाउ इन्द्र नरेन्द्रजी । नभ में दुन्दुभि की धुनि भारी, वर्षे फूल सुगन्ध अपारी । जिनके सम्मुख ठाडे इन्द्र नरेन्द्रजी ।
वृक्ष अशोक शोक सब नाशे वाणी दिव्य प्रकाश ।
जैन पूजा पाठ सग्रह
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स्वहित वृप निज निधि पावैजी || जिनके० ॥ श्री गिरिनार शिसरते स्वामी, पायो पद, निर्वाण | कर्मकलङ्क रहित अविनाशी सिद्ध भये भगवान । पञ्चकल्याणक पूजा कीनी सकल सुरासुर आन || अपनो विरद निवाहो दीन दयालजी । मोकों दीजे निजकी माया, कारज कीजे मन ललचाया । अपनो विरढ़ निवाहो दीन दयालजी || विनय जिनेश्वर की सुन स्वामी, नेमीश्वर महाराज । हृदय मे तुम पद ध्याऊजी जिनके गुण गावें सुरनर शेपजी || दोहा - चरणन शीश नवाय के, पूजा कर गुन गाय । अरज करूँ यह एक मैं, भव-भव होहु सहाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । अडिल छन्द |
वर्तमान जिनराय भरत के जानिये,
• पञ्चकल्याणक मानि गये शिवथानिये ।
जो नर मनवचकाय प्रमु पूजें सही,
सो नर दिवसुख पाय लहै अष्टम मही ॥ इत्याशीर्वाद, परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।