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________________ चारित्र संयमी व्यक्तिको कर्मोके निवारणार्थ जो अन्तरंग और बहिरंग प्रवृत्ति होतो है वह चारिन है । परिणामोंको विशुद्धिके तारतम्यकी अपेक्षा और निमित्तभेदसे चारित्रके पांच भेद हैं । मुनि इन पांचो प्रकारके चारित्रोका पालन करता है। १ सामायिक चारित्र-सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप इनके साथ ऐक्य स्थापित करना और राग एव द्वेपका विरोध करके आवश्यक कर्तव्योमे समताभाव बनाये रखना सामायिक चारित है। इसके दो भेद हैं-(१) नियत काल और (२) अनियत काल । जिनका समय निश्चित है ऐसे स्वाध्याय आदि नियत काल सामायिक हैं और जिनका समय निश्चत नही है ऐसे ईर्यापथ आदि अनियतकाल है। सक्षेपतः समस्त सावद्ययोगका एकदेश त्याग करना सामायिक चारित्र है। २ छेदोपस्थापना चारित्र-मामायिक चारिपसे विचलित होनेपर प्रायश्चित्तके द्वारा सावध व्यापारमे लगे दोपोको छेदकर पुन सयम धारण करना छेदोपस्थापना चारिम है। वस्तुत समस्त सावद्ययागका भेदरूपसे त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। यथा-मैंने समस्त पापकार्योका त्याग किया, यह सामायिक है और मैने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका त्याग किया, यह छेदोपस्थापना है । ३ परिहारविशुद्धि-जिस चारित्रमे प्राणिहिंसाको पूर्ण निवृत्ति होनेसे विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं। जिस व्यक्तिने अपने जन्मसे तीस वर्षको अवस्थातक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया, पश्चात् दिगम्बर दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकरके निकट प्रत्याख्याननामक नवम पूर्वका अध्ययन किया हो तथा तीनो सन्ध्याकालको छोड़कर दो कोप विहार करलेका जिसका नियम हो उस दुर्धरचर्याक पालक महामुनिको ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्रवालेके शरीरसे जीवोका घात नही होता है । इसोसे इसका नाम परिहारविशुद्धि है। ४ सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र-जिसमे क्रोध, मान, माया इन तीन कपायोका उदय नहीं होता, किन्तु सूक्ष्म लोभका उदय होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है । यह दशमगुणस्थानमे होता है । ५. यथाल्यात चारित्र-समस्त मोहनीयकर्मके उपशम अथवा क्षयसे जैसा आत्माका निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना . ५३५
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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