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आदि सप्त धातुओ और मल-मूत्रसे भरा हुआ है। इससे निरन्तर मल झरता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता का चिन्तन करना अशुचि-अनुप्रेक्षा है ।
(७) आस्रवानुप्रेक्षा -- इन्द्रिय, कपाय और अव्रत आदि उभय लोकमे दुखदायी है । इन्द्रियविपयोकी विनाशकारी लोला तो सर्वत्र प्रसिद्ध है । जो इन्द्रियविषयो और कपायोके अधीन है, उसके निरन्तर आस्रव होता रहता है और यह आस्रव ही आत्मकल्याणमे बाधक है । इस प्रकार आस्रवस्वरूपका चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है ।
(८) संवरानुप्रेक्षा -सवर आस्रवका विरोधी है । उत्तम क्षमादि सवरके साधन हैं । सवरके बिना आत्मशुद्धिका होना असम्भव है । इस प्रकार सवरस्वरूपका चिन्तन करना सवरानुप्रेक्षा है ।
( ९ ) निर्जरानुप्रेक्षा - फल देकर कर्मोंका झड जाना निर्जरा है । यह दो प्रकार को है- (१) सविपाक और (२) अविपाक । जो विविध गतियोमे फलकालके प्राप्त होनेपर निर्जरा होती है, वह सविपाक है । यह अवुद्धिपूर्वक सभी प्राणियोमे पायो जाती है । किन्तु अविपाक निर्जरा तपश्चर्याके निमित्त सम्यग्दृष्टि होती है । निर्जराका यही भेद कार्यकारी है । इस प्रकार निर्जराके दोष- गुणका विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है ।
( १० ) लोकानुप्रेक्षा - अनादि, अनिवन और अकृत्रिम लोकके स्वभावका चिन्तन करना तथा इस लोकमे स्थित दुख उठानेवाले प्राणीके दुखोका विचार करना लोकानुप्रेक्षा है ।
( ११ ) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - जिस प्रकार समुद्रमे पडे हुए हीरकरत्नका प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार एकेन्द्रियसे त्रसपर्यायका मिलना दुर्लभ है । सपर्यायमे पचेन्द्रिय, सज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य एव सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके योग्य साधनोका मिलना कठिन है । कदाचित् ये साधन भी मिल जायें, तो रत्नत्रयकी प्राप्ति के योग्य बोधिका मिलना दुर्लभ है । इसप्रकार चिन्तन करना दोषि - दुर्लभानुप्रेक्षा है ।
(१२) धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा - तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म अहिंसामय है और इसकी पुष्टि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, विनय, क्षमा, विवेक आदि धर्मों और गुणोसे होती है । जो अहिंसा धर्मको धारण नही करता । उसे संसारमे परिभ्रमण करना पडता है, इस प्रकार चिन्तन करना धर्मस्वाख्यात्तत्वानुप्रेक्षा है।
इन अनुप्रेक्षाओके चिन्तनसे वैराग्यको वृद्धि होती है । ये अनुप्रेक्षाएं माताके समान हितकारिणी और आत्म-आस्थाको उद्बुद्ध करनेवाली हैं ।
५३४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा