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गुणों का प्रदान करना त्याग है । शरोर और परवस्तुओसे ममत्व न रखना माकिंचन्य है | स्त्री-विषयक सहवास, स्मरण और कथा आदिका सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य है ।
ससार एव ससारके कारणोके प्रति विरक्त होकर धर्मके प्रति गहरी आस्था उत्पन्न करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है, पुन. पुन चिन्तन करना । साधु या अन्य आत्मसाधक व्यक्ति ससार और ससारको अनित्यता आदिके विषयमे और साथ ही आत्मशुद्धिके कारणभूत भिन्न-भिन्न साघनोके विषयमे पुन पुन चिन्तन करता है, जिससे ससार और ससारके कारणोके प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है और धर्मके प्रति आस्था उत्पन्न होती है । अनुप्रेक्षाएँ निम्नलिखित बारह हैं
(१) अनित्य - शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभोगको जलके बुलबुलेके समान अनवस्थित और अनित्य चिन्तन करना । मोहवश इस प्राणीने परपदार्थो को नित्य मान लिया है, पर वस्तुत. आत्माका ज्ञान दर्शन ओर चैतन्य स्वभाव ही नित्य है और यही उपयोगी है ।
(२) अशरण - यह प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियोसे घिरा हुआ है । यहाँ इसका कोई भी शरण नही है । कष्ट या विपत्तिके समय धर्मके अतिरिक्त अन्य कोई भी रक्षक नही है । इसप्रकार ससारको अशरणभूत विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है ।
(३) ससारानुप्रेक्षा -- ससारके स्वरूपका चिन्तन करना तथा जन्म-मरणरूप इस परिभ्रमणमे स्वजन और परिजनकी कल्पना करना व्यर्थ है । जो साधक ससार के स्वरूपका चिन्तनकर वैराग्य उत्पन्न करता है, वह ससारानुप्रेक्षाका चिन्तक होता है ।
( ४ ) एकत्वानुप्रेक्षा मे अकेला ही जन्मता हूँ और अकेला ही मरण प्राप्त करता हूँ । स्वजन या परिजन ऐसा कोई नही जो मेरे दु खोको दूर कर सकते है, इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा -- शरीर जड है, में चेतन हूँ । शरीर अनित्य है, मै नित्य हूँ । ससारमे परिभ्रमण करते हुए, मैने अगणित शरीर धारण किये, पर मै जहाँ-का-तहाँ हूँ । जब मे शरीरसे पृथक् हूँ, तब अन्य पदार्थों से अविभक्त कैसे हो सकता हूँ ?" इस प्रकार शरीर और बाह्य पदार्थोंसे अपनेको भिन्न चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।
(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा -- शरीर अत्यन्त अपवित्र है । यह शुक्र, शोणित तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५३३