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३. परमार्थ देवशास्त्रगुरुकी प्रतीति ।
४ आत्मश्रद्धान- श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति ।
५ अनन्तानुबन्धीकी चार प्रकृतियाँ तथा दर्शनमोहनीयकी तीन इन सात प्रकृतियोके उपशम-क्षयोपगम अथवा क्षयसे प्रादुर्भूत श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति ।
सात तत्त्व, पुण्य पाप, एवं द्रव्य गुण पर्याय, का यथार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है । मूलत दो तत्त्व हैं - जीव और अजोव । चेतनालक्षण जोव है और उससे भिन्न अजीव । जीवके साथ नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्मका सयोग है । अनादि कालसे इन तीनोका सयोग चला आ रहा है । आत्म-कल्याण के लिये सात तत्त्व या नव पदार्थ प्रयोजनीय है । इनके स्वरूपका वास्तविक निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है । इन सात तत्त्वोमे जीव अजोवका सयोग संसार है और इसके कारण आस्रव एव वन्ध है । जीव और अजीवका जो वियोग - पृथक भाव है उसके कारण सवर एव निर्जरा हैं । जिस प्रकार रोगी मनुष्यको रोग, उसके कारण रोग मुक्ति; और उसके कारण इन चारोका ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जीवको समार, ससारके कारण, मुक्ति ओर मुक्तिके कारण इन चागेका परिज्ञान अपेक्षित है । सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है क्योकि जिसका मन मिथ्यात्वमे ग्रस्त है वह मनुष्य होते हुए भी पशुतुल्य है और जिसको आत्मामे सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वह पशु होकर भी मनुष्य के समान है ।
सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिये कतिपय योग्यताओकी आवश्यकता है । पहली योग्यता तो उस जीवका भव्य होना है । भव्यको ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है, अभव्यको नही । यह योग्यता स्वाभाविक है, प्रयत्नसाध्य नही । इस योग्यताके साथ सज्ञीपर्याप्त तथा पांच लब्धियोसे युक्त होना अपेक्षित है । इन लब्धियोमे देशनालब्धि अत्यावश्यक है । यत सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व तत्त्वोपदेशका लाभ होना आवश्यक है । साराश यह है कि सम्यग्दर्शन सज्ञा पचेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्यजीवको ही होता है, अन्यको नही । भव्योमे भी यह उन्हीको प्राप्त होगा, जिनका ससार - परिभ्रमणका काल अर्द्धपुद्गलपरावर्तनके काल से अधिक अवशिष्ट नही है । लेश्याओके विपयमे यह कथन है कि मनुष्य और तिर्यञ्चोके तीन शुभ लेश्याओमेसे कोई भी लेश्या रह सकती है । देव और नारकियोमे जहाँ जो लेश्या है उसीमे औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । कर्म-स्थिति के विपयमे कहा जाता है कि जिसके वध्यमान कर्मोकी स्थिति अन्त कोडा - कोडी - प्रमाण हो तथा सत्तामे स्थित कर्मों की स्थिति सख्यातहजार सागर कम अन्त कोडा
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४९३