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तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ॥ पुनि नृत्य कमावन का यह आरंभ हिसा साजै । किये अव तिमनावश भार्ग, करुना नहिं रंच
विचारी ॥ भगवंता ।
श्री
शिवधानी । सही है ।
इत्पादिक पाप अनंता, हम फीने संतति चिरकाल उपाई, चानी ते कहिय न जाई ॥ ताकी जय आयो, नानाविध मोहि सतायो । फल झुंजत जिय दुख पारे, वचतं केले करि गावै ॥ तुम जानत केवलगानी दुख दूर करो हम तो तुम शरण ली है. जिन तारन नि जी गावपनी कहो तो भी इसिया दुस खो तुम तीन सुजनके स्वामी, दुस मेटहु अंतरजामी || द्रोपदी चीर दायी, सीताप्रति कमल रचायो । अंजनसे किये अकामी, दुस मेटो अंतरजामी ॥ मेरे अवगुन न चितारी, प्रभु अपनी विरद सम्हारो । सब दोषरहित करि स्वामी, दस मेट अंतरजामी ॥ इंद्रादिक पदची नहिं चाहे विषयनिमे नाहिं लुभाऊँ । रागादिक दोपहरी, परमानम निज पद दीजै ॥ बीटा टोपरहित जिनदेवजी, निजपट दीज्यो मोय | नव जीवनके गुस चह, आनंद मंगल होय ॥ अनुभव माणिक पारसी, 'जौहरि' आप जिनन्द | यही वर मोहि दीजिये, चरन शरन आनन्द ||