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जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-स्वामिनी ! तुम परसाद तैं मैं पायो फल सार ।
व्रत सुगन्ध दशमी कियो, पूरव विद्या धार ।। १३३।। ता व्रत के परभावत, देव भयो मैं जाय । तुम मेरी साधर्मिणी, जुग क्रम देखनि आय ॥ १३४॥ हमि कहि वस्त्राभरण तें, पूज करी मनलाय ।
अरु सुर पुनि ऐसे कहो, तुम मेरी वर माय ॥ १३५॥ चौपाई-थुतिकर सुरनिजथानिक गयो,लोकांइह निश्चय लखि लियो।
धन्य सुगन्थ दशमी व्रत सार, ताको फल है अनन्त अपार ।। तव सवही जन यह व्रत धस्यो, अपन कर्म महाफल हरयो । तिलकमती कञ्चन प्रभु राय, मुनिक नमि अपने घरि जाय । देती पात्रनि को शुभ दान, करती सज्जन जन सन्मान । नित प्रति पूजै श्री जिनराय, अरु उपवास करै मनलाय ।। पति व्रत गुण को पालनहार, पुनि सुगन्ध दशमी व्रत धार । अन्त समाधि थकी तजि प्रान, जाय लयो ईशान सु थान ।। सागर दोय जहां थिति लई, शुभ नै भयो सुरोत्तम सही। नारी लिङ्ग निन्ध छेदियो, चय शिववासी जिनवर्णयो । जहां देव सेवा बहु करे, निरमल चमर तहां शिर ढरे ।
और विभव अधिकौ जिहिं जान, पूरव पुन्य भये तिहि आन ॥ इह लखि सुगन्ध दशैं व्रत सार, कीजै हो! भवि शर्म विचार ।
जे भवि नर-नारी व्रत करें, ते संसार समुद्र सों तिरै ॥ दोहा-श्रुतसागर ब्रह्मचारी को, ले पूरव अनुसार ।
भाषा सार बनाय के, सुखित 'खुशाल' अपार ॥१४३॥