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रविप्रत कथा श्री सुमदायक पार्श्व जिनेश, गुमति सुगति दाता परमेश | सुमरी शारदपद अरविन्द, विनपर मत प्रयी सानन्द ॥ १ ॥ यापारसि नगरी तू विशाल, प्रजापाल प्रगट्यो भूपाल । मतिमागर वह सेट सु जान, ताकी भूष करे सन्मान ॥ २ ॥ कामु ठिया गुण सुन्दरी नाम, गाउ पुत्र ताके अभिराम । पट व भोग करें परणीत, यावरूप गुणधर सु विनीत ॥ ३ ॥ सहनट शोभित तिन धाम, आये यविपति राष्टित काम | सुनि मुनि आगम दति भये, सर्प लोग वन्दन को गये ॥ ४ ॥ गुरु वाणी सुनि के गुणवती, सेटिन तय करे विनती । प्रमो गम बताय, जामों रोग शोक भय जाय ॥ ५ ॥ कलानिधिमादि सुनिराय, नो भव्य तुम चित्त लगाय । पशु पक्ष विचार, कीजें अन्तिम रविवार || ६ || अनशन अपना अन्य नहार, को परिवार । लवणादिक ज न फल त पचामृत धार, चे प्रकार पूजा भनहार ॥ ७ ॥ उमरी जान, नव श्रापक पर दीजे आन । या कर नव वर्ष प्रमाण, जात होय सर्व कल्याण ॥ ८ ॥ अथवा एक वर्ष सनार, कोर्जे रविप्रत मनहि विचार । सुनि साहुन निज परको गई, नत निन्दा करि निन्दित भई || ६ || म निन्दा निर्धन भये, मानहिं पुत्र अवधपुर गये । वहां जिनदन सेठ घर रहें, पर दुष्कृत का फल लीं ॥१०॥ मात-पिता गृह दःसित सदा, अवध सहित मुनि पूछे तथा । दयावन्त मुनि ऐसे की, व्रत निन्दा से तुम दुःख लो || ११|| मुनि गुरु वचन बहुरि न लयो, पुण्य थयो घरमें धन भयो । afeजन सुनो कथा सम्बन्ध, जहं रहते थे वे सब नन्द ||१२|