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समाज-व्यवस्थाका आधार अध्यात्म, अहिंसा, नैतिक नियम और ऐसे धार्मिक नियम थे, जिनका सम्बन्ध किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदायसे नही था। महावीरका सिद्धान्त है कि विश्वके समस्त प्राणियोके साथ आत्मीयता, बन्धुता और एकताका अनुभव किया जाय । अहिंसा द्वाग सबके कल्याण और उन्नतिकी भावना उत्पन्न होती है । इसके आचरणसे निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतन्त्रता और सत्यता वढती है । अहिंसाको सीमा किसी देश, काल, और समाज तक सीमित नहीं है। अपितु इसकी सोमा सर्वदेश और सर्वकाल तक विस्तृत है। अहिंसासे हो विश्वास, आत्मीयता, पारस्परिक प्रेम एव निष्ठा आदि गुण व्यक्त होते हैं । अहकार, दम्भ, मिथ्या विश्वास, मसहयोग मादिका अन्त भी अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े-से-बड़े साध्यको सिद्ध कर सकता है।
अहिंसात्मक प्रतिरोध अनेक व्यक्तियोको इसीलिये निर्वल प्रतीत होता है कि उसके अनुयायियोने प्रमको उत्पादक शक्तिको पूर्णतया पहचाना नही है। वास्तवमे आत्मीयता और एकताको भावनासे ही समाजमे स्थायित्व उत्पन्न होता है । यदि भावनाओमे क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ. राग-द्वेष आदि है, तो ऊपरसे भले ही दया या करुणाका आडम्बर दिखलायी पडे, आन्तरिक विश्वास जागृत नही हो सकता । यदि हृदयमे प्रेम है, रक्षाकी भावना है और है सहानुभूति एव सहयोगको प्रवृत्ति, तो ऊपरका कठोर व्यवहार भी विश्वासोत्पादक होगा। इसमे सन्देह नहीं है कि अहिंसाके आधारपर प्रतिष्ठित समाज ही सुख और शान्तिका कारण बन सकता है ।
शक्तिप्रयोगसम्बन्धी सिद्धान्तका विश्लेषण इजिनियरिंग कलाके आलोकमे किया जा सकता है। मनुष्यके स्वभाव और समाजमे अपार शक्ति है। इसके क्रोधादिके रूपमे फूट पडनेसे रोकना चाहिये और प्रेमको प्रणाली द्वारा उपयोगी कार्योंमे लगाना चाहिये । इस सिद्धान्तको यो समझा जा सकता है कि हम भापकी शक्तिको फूट पडनेसे रोक कर वायलर और अन्य वस्तुओकी रक्षा करते हैं और इजिनको शक्तिशाली बनाते हैं। इसीप्रकार हम व्यक्तिके अहकार, काम, क्रोधादि दुर्गुणोको फूट पडनेसे राक सक और इन गुणोका परिवर्तन अहिंसक शक्तिके रूपमे कर सकें, तो समाजका सचालित करनेके लिये अपार शक्तिशाली व्यक्तिरूपी एजिन प्राप्त होता है ।
एकताको भावना अहिंसाका ही रूप हे। कलह, फूट, द्वन्द्व और सघर्ष हिमा है। ये हिंसक भावनाएं सामाजिक जीवनमे एकता और पारस्परिक विश्वास उत्पन्न नही कर सकती है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना • ६०१