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प्रारम्भ गुरुचरणोकी उपासनासे ही सम्भव है । इसी कारण गृहस्थ के दैनिक षट्कर्मो मे गुरूपास्तिको आवश्यक माना है । यत गुरुके पास सतत निवास करनेसे मन, वचन, कायकी विशुद्धि स्वत होने लगती है और वाक्सयम, इन्द्रियसंयम तथा आहारसंयम भी प्राप्त होने लगते हैं । गुरु-उपासनासे प्राणीको स्वपरप्रत्ययकी उपलब्धि होती है । अतएव गृहस्थको प्रतिदिन गुरु-उपासना एवं गुरुभक्ति करना आवश्यक है ।
स्वाध्याय-स्वाध्यायका अर्थ स्व- आत्माका अध्ययन - चिन्तन-मनन है | प्रतिदिन ज्ञानार्जन करनेसे रागके त्यागकी शक्ति उपलब्ध होती है । स्वाध्याय समस्त पापोका निराकरणकर रत्नत्रयकी उपलब्धिमे सहायक होता है । बुद्धिबल और आत्मबलका विकास स्वाध्याय द्वारा होता है । स्वाध्याय द्वारा सस्कारोमे परिणामविशुद्धि होती है और परिणामविशुद्धि ही महाफलदायक है । मनको स्थिर करनेकी दिव्यौषधि स्वाध्याय ही है । हेय - उपादेय और ज्ञेयकी जानकारोका साधन स्वाध्याय है । स्वाध्याय वह पीयूष है जिससे ससाररूपी व्याधि दूर हो जाती है । अतएव प्रत्येक श्रावकको आत्मतन्मयता, आत्मनिष्ठा, प्रतिभा, मेघा आदिके विकासके लिये स्वाध्याय करना आवश्यक है ।
संयम - इन्द्रिय और मनका नियमनकर सयममे प्रवृत्त होना अत्यावश्यक है । कषाय और विकारोका दमन किये बिना आनन्दकी उपलब्धि नही हो सकती है । सयम ही ऐसी ओषधि है, जो रागद्वेषरूप परिणामोको नियन्त्रित करता है । सयमके दो भेद हैं- १ इन्द्रियसयम और २ प्राणिसयम । इन दोनो सयमोमे पहले इन्द्रियसयमका धारण करना आवश्यक है क्योकि इन्द्रियोके वश हो जानेपर ही प्राणियोकी रक्षा सम्भव होती है । इन्द्रियसम्बन्धी अलाषाओ, लालसाओ और इच्छाओका निरोध करना इन्द्रियसयमके अन्तर्गत है । विषय- कषायाओको नियन्त्रित करनेका एकमात्र साधन संयम है । जिसने इन्द्रियसयमका पालन आरम्भ कर दिया है वह जीवननिर्वाहके लिये कम-से-कम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे शेष सामग्री समाजके अन्य सदस्योके काम आती है, सघर्ष कम होता है और विपमता दूर होती है । यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे तो दूसरोके लिये सामग्री कम पडेगी, जिससे शोषण आरम्भ हो जायगा । अतएव इन्द्रियसयमका अभ्यास करना आवश्यक है ।
प्राणिसयममे षट्कायके जोवोकी रक्षा अपेक्षित है । प्राणिसयमके धारण करनेसे अहिंसाकी साधना सिद्ध होती है और आत्मविकासका आरम्भ होता है ।
५२६ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा