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________________ शरीरका उद्देश्य धर्मसाधन है। धार्मिक विधि-विधानका अनुष्ठान इस शरीरके द्वारा ही सम्भव होता है। अत जब तक यह शरीर स्वस्थ है और धर्मसाधनको क्षमता है तबतक धर्मसाधनमे प्रवृत्त रहना चाहिए, पर जब शरीरके विनाशके कारण उपस्थित हो जायें और प्रयत्न करनेपर भी शरीरकी रक्षा सम्भव न हो, तव आहार, पानको त्याग करते हुए गृहस्थ राग, द्वेष और मोहसे आत्माकी रक्षा करता है । वस्तुत श्रावकके लिए आत्मशुद्धिका अन्तिम अस्त्र सल्लेखना है । सल्लेखनाद्वारा ही जीवनपर्यन्त किये गये व्रताचरणको सफल किया जाता है। यह आत्मघात नहीं है. क्योकि आत्मघातमे कषायका सद्भाव रहता है, पर सल्लेखनामे कषायका अभाव है। सल्लेखनावतके निम्नलिखित अतिचार हैं १ जीवितागसा-जीवित रहनेको इच्छा। २. मरणागसा-सेवा-मुश्रपाके अभावमे गोघ्र मरनेकी इच्छा। ३ मित्रानुराग-मित्रोके प्रति अनुराग जागत करना । ४. सुन्वानुवन्ध-भोगे हुए मुखोका पुन पुन स्मरण करना। ५ निदान-तपश्चर्याका फल भोगरूपमे चाहना । श्रावकके दैनिक षट् कर्म थावक अपना सर्वांगीण विकास निलिप्तभावसे स्वकर्तव्यका सम्पादन करते हुए घरमे रहकर भी कर सकता है। दैनिक कृत्योमे पट्कर्मोको गणना की गई है। १ देवपूजा-देवपूजा गुभोपयोगका साधन है। पूज्य या अय॑ गणोंके प्रति आत्मसमर्पणकी भावना ही पूजा है । पूना करनेसे शुभरागको वृद्धि होती है, पर यह गभराग अपने 'स्व'को पहचाननेमे उपयोगी सिद्ध होता है। पूजाके दो भेद हैं-द्रव्यपूजा और भावपूजा । अष्टद्रव्योंसे वीतराग और सर्वज्ञदेवकी पूजा करना द्रव्यपूजा है। और विना द्रव्यके केवल गुणोका चिन्तन और मनन करना भावपूजा है। भावपूजामे आत्माके गुण ही आधार रहते है, अत' पूजकको आत्मानुभूतिको प्राप्ति होती है । सराग वृत्ति होनेपर भी पूजन द्वारा रागद्वपके विनागकी क्षमता उत्पन्न होती है। पूजा सम्यग्दर्शनगुणको तो विशुद्ध करती ही है, पर वीतराग आदर्शको प्राप्त करनेके लिये भी प्रेरित करती है। यह आत्मोत्यानकी भूमिका है। ...२ गुरुभक्ति-गुरुका अर्थ अज्ञान-अन्धकारको नष्ट करने वाला है। यह निर्ग्रन्थ, तपस्वी और आरम्भपरिग्रहरहित होता है। जीवनमे सस्कारोका नोर्थंकर महावीर और उनकी देशना . ५२५
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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