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करि दीपक जोतं, तमछय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े : तुम हो परकाशक, भरजविनाशक. हम घटभासक, ज्ञान बढ़े। ती ॐ ह्रीं श्रीजिनमुख सरस्वतीदेव्ये मोदान्वकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
शुभगंध दशोंकर, पावकमैं धर, धूप मनोहर, खेवत हैं । सब पाप जलावें, पुण्य कमावैं, दास कहावैं, सेवत हैं। सी ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७
चादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं । मनवांछित दाता, मेट अलाता, तुम गुन माता, ध्वावत हैं ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखो द्रवमरस्वतीदेव्य मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
नयननसुखकारी, मृदुगुणधारी, उज्ज्वलभारी, मोल धरै । शुभगंधसम्हारा, वसन निहारा, तुम तटधारा, ज्ञान करे ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अन्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥ जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत दीप धूप अति फल लावें । पूजाको ठालत, जो तुम जानत, सो नर यानत. सुख पावें ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भयसरस्वतीदेव्यै अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला, सोरठा ।
ओंकार धुनिसार, द्वादशांगवाणी विमल | नमो भक्ति उर धार, ज्ञान करें जड़ता हरे ॥ पहलो आचारांग खानो, पद अष्टादश सहस प्रयानो । दूजो सूत्रकृतं अभिलापं, पद छत्तीस सहल गुरु भापं ॥ १ ॥ तीजो ठाना अन सु जानं, सहस वियालिस पद सरधानं । चौथो समवायांग निहार, चौसठ सहस लाख हक धारं ॥२॥ पञ्चम व्याख्या प्रज्ञपति दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं ।