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ज्यों चन्दनतरु बोलहि मोर, डरहिं भुजंग लगे चहुँओर ॥ तुम निरखत जन दीन दयाल, संकटतें छूटै तत्काल | ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ॥ तू भविजन तारक किमि होहि, ते चित धार तिरहिं ले तो हि । यह ऐसे कर जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित वाव ॥ जिहं सब देव किये वश बाम, तैं छिनमें जीत्यो सो काम । ज्यों जल करै अगनिकुल हान, बड़वानल पावै सो पान ॥ तुम अनन्त गरवागुण लिये, क्योंकर भक्ति धरौं निज हिये ।
लघुरूप तिरहिं संसार, यह प्रभु महिमा अगम अपार । क्रोध निवार कियो मन शांत, कर्मसुभट जीते किहि भांत । . यह पटतर देखहु संसार, नील विरछ ज्यों दहै तुषार ॥ मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्ध रूप सम ध्यावहिं तोहि कमलकरणिका बिन नहिं और, कमल बीज उपजनकी ठौर ॥ जब तुव ध्यान धरै मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय । जैसे धातु शिलानु त्याग, कनकस्वरूप धर्वे जब आग ॥ . जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय क्यों विग्रह तास । ज्यों महन्त विच आवै कोय, विग्रहमूल निवारै सोय ॥ करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभावतें होय निदान ।
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