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त सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज कन्ध मनोग। कियो चनमांहि निवास जिनन्द, धरे व्रत चारित आनन्द कन्द ॥११॥ गहे तई अप्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास । दियो पगदान महामुसकार, भयी पनगृष्टि तहां तिहिवार ॥१२॥ गये तर काननमाहि दयाल, धरो तुम योग सये अघटाल । तय यह धम सुस्त अपान, भयो कमठाचर को मुर आन ।।१३।। कर नभ गान लखे तुम धीर, जु पूरव र विचार गहीर । कियो उपस भयानक घार, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ॥१४॥ रसो दस दिगिमें तम छाय, लगी बह, अग्नि लसी नहिं जाय । मुरुण्डन के दिन मुण्ट दिसाय, पड जल मुसलधार अथाय ||१|| तव पदमापति-कन्य धनिन्द, नये जुग गाय तहां जिनचन्द । मग्यो तर रंकसु देसत हाल, लयो तब केवलान विशाल ॥१६॥ दियो उपदेश महा हितकार, सुभयन चोधि समेद पधार । मुवर्णभद्र जह झूट प्रसिद्ध, बरी शिव नारि लही वसुऋद्ध ॥१७॥ जज तुम चरण दुई कर जोर, प्रभृ लसिये अब ही मम ओर । कई 'यसनार रत्न' बनाय, जिनेश हमें भवपार लगाय ॥१८॥ जय पारस देवं सुरकृत सेवं वन्दत चरण सुनागपती। करुणाके धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥
मोगागिनेन्टाप नियंपा पारा । अडिल्ल -जो पूज मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही । ताके दुःख सब जांय भीति व्याप नहिं कितही।
सुग्व सम्पनि अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे। अनुक्रमसों शिव लहे, रतन' इस कहै पुकारे ।।
यागीयांट पुरिलि क्षिपेत ।