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संयोगतो दुःखमनेकभेदं यतोऽश्नुते जन्म-वने शरीरी । ततस्विधासौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ।। सर्व निराकृत्य विकल्प-जालं संसार-कान्तार-निपात-हेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्म-तत्त्वे ।। स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनोन कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥ यैः परमात्माऽमितगति-वन्द्यः सर्व-विविक्तो भृशमनवद्यः। शश्वदधोतो मनसि लभन्ते मुक्ति-निकेतं विभव-वरं ते ।।
इति द्वात्रिंशतिवृत्तः परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगत-चेतस्को यात्यसौ पदमव्ययम् ॥
कायबल - जिनका कायवल श्रेष्ठ है, वे ही मोक्ष पथ के पथिक बन सकते हैं। इस
प्रकार जब मोक्षमार्ग में भी फायबल की श्रेष्ठता आवश्यक है, तब सांसारिक कार्य इसके बिना कैसे हो सकते हैं। - प्राचीन महापुरुषों ने जो कठिन से कठिन आपत्तियाँ और उपसर्ग सहन किये, वे कायपल की श्रेष्ठता पर ही किये। अत शरीर को पुष्ट रखना भावश्यक है, किन्तु इसी के पोषण में सब समय न लगाया जावे। दूसरे को रक्षा स्वात्म रक्षा की ओर दृष्टि रख कर ही की जाती है, अपने माप को भूल कर नहीं।
-'वर्णी वाणी' से