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लिये साम्यभाव रखना व्रतिकके लिये आवश्यक है । पूर्वमे प्रतिपादित श्रावकके द्वादश व्रतोका पालन करना वतिकके लिये विधेय है।
३ सामायिकप्रतिमा-व्रतप्रतिमाका अभ्यासी श्रावक तीनो संध्याओमे सामायिक करता है और कठिन-से-कठिन कष्ट आ पडनेपर भी ध्यानसे विचलित नही होता है । वह मन, वचन और कायको एकाग्रताको स्थिर बनाये रखता है। सामायिक करनेवाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्गके पश्चात् चार बार तीन-तीन आवर्त करता है। अर्थात् प्रत्येक दिशामे "णमो अरहताणं" इस आद्य सामायिकदण्डक और "थोस्सामि ह" इस अन्तिम स्तविकदण्डकके तीनतीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है । श्रावक इन आवर्त आदिकी क्रियाओको खडे होकर सम्पन्न करता है। सामायिकका उद्देश्य आत्माकी शक्तिका केन्द्रीकरण करना है । सामायिकप्रतिमाका धारण करनेवाला सामायिकी कहलाता है। दूसरी प्रतिमामे जो सामायिकशिक्षावत है वह अभ्यासरूप है और इस तीसरी प्रतिमामे किया जानेवाला सामायिक व्रतरूप है।
४ प्रोषधप्रतिमा-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करना प्रोषध प्रतिमा है। पूर्वमे द्वितीय प्रतिमाके अन्तर्गत जिस प्रोषधोपवासका वर्णन किया गया है, वह अभ्यासरूपमे है। पर यहा यह प्रतिमा व्रतरूपमे ग्रहीत है।
५ सचित्तविरत-प्रतिमा-पूर्वको चार प्रतिमाओका पालन करनेवाले दयालु श्रावक द्वारा हरे साग, सब्जी, फल, पुष्प आदिके भक्षणका त्याग करना सचित्तविरत-प्रतिमा है। वस्तुत इस प्रतिमामे किये गये सचित्तत्यागका उद्देश्य सयम पालन करना है। सयमके दो रूप हैं-१ प्राणिसयम और २. इन्द्रियसयम। प्राणियोकी रक्षा करना प्राणिसयम और इन्द्रियोको वशमे करना इन्द्रियसयम है।
वस्तुत वनस्पतिके दो भेद हैं -१) सप्रतिष्ठित और (२) अप्रतिष्ठित । सप्रतिष्ठित दशामे प्रत्येक वनस्पतिमे अगणित जीवोका वास रहता है, अतएव उसे अनन्तकाय कहते हैं और अप्रतिष्ठत दशामे उसमे एक हो जीवका निवास रहता है । सप्रतिष्ठित या अनन्तकाय वनस्पतिके भक्षणका त्याग अपेक्षित है। जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित-अनन्तकायके जीवोका वास नही रहनेके कारण अचित्त हो जाती है तो उसका भक्षण किया जाता है। सुखाकर, अग्निमे पकाकर, चाकसे काटकर सचित्तको अचित्त बनाया जा सकता है। इन्द्रियसयमका पालन करनेके लिये सचित्त वनस्पतिका त्याग आवश्यक है।
६ दिवामैथुन या रात्रिभुक्तित्याग-पूर्वोक्त पांच प्रतिमाओके आचरणका ५२८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा