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चौपाई तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे । और देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥ तरु अशोक तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार | मेघ निकट ज्यों तेज फुरत, दिनकर दिपै तिमिर निहनत || सिंहासन मनि- किरन -विचित्र, वापर कंचन वरन पवित्र । तुम तन शोभित किरन - विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ॥ कुंद - पुहुप - सित-चमर दुरंत, कनकवरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेट निर्मल कांति, भरना भरै नीर उमगांति ॥ ऊँचे रहें सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहें, मोती-झालरसों छवि लहैं ॥ दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानूँ जय जय रव उच्चरै ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहप- सुवृष्ट । देव करै विकसित दल सार, मानों द्विज-पकति अवतार || तुम तन-भामंडल जिनचंद, सब दुतिवंत करत है मंद | कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥ स्वर्ग -मोख मारग संकेत, परम धरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तुम खिरै अगाध, सब भाषागर्भित हित साध ॥ दोहा विकसित - सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं । तुम पद पदवी जहॅ धरो, तहॅ सुर कमल रचाहि || ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय । सूरजमें जो जोत है, नहिं तारागण होय ॥
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