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________________ र पार म होऊँ नहीं नन्न कभी में टोह न म उन आर। गुण-ग्ररणका मान रहे निन "टि न दोपॉपर जान ।। कोई युग की या अन्ला लन्मी जाने या जाने। लाखो यी नक. जीऊ या मृत्यु आज ही आना ।। अथवा कोई कला ही भय या लालच देने मात्र । तो भी न्याय-मागने मेग कभी न पर टिगन पान ।। होकर गुसमें मन्न न फले दरमे कमी न बर्ग । सर्वत-नदी श्मशान भगनक अटवाने नहिं भर पाने ।। म्ह अटोल-अका निरंतर यह मन हन्तर बन जाने । टष्ट्रवियोग-भनियोगमे सहनशीलता दिग्गलावे ।। मुनी र मब जीव जगतक कोई कभी न बनगावै । वर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मरू, गावे ।। घर-घर चर्चा रहै धर्मकी दुष्कृत दुकर हो जाये । नान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्म-फल नत्र पारे॥ ईति भीति व्यापै नहि जगने वृष्टि नमयपर हुआ करें । धमनिष्ठ होकर गजा भी न्याय प्रजाका किया पर । रोग मरी दर्भित न फैले प्रजा शातिसे जिया करें। परम अहिंसा-धर्म जगतमें फैल सर्व-हित किया करे । फैले प्रेम परस्पर जगमें मोह दूर ही रहा करै । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करै ।। वनकर सब 'युगवीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु-स्वरूप-विचार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करे ।
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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