SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 660
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थे । फलतः वे उस युगकी प्रमुख-धर्म-धारणा यज्ञ और क्रियाकाण्डके विरोधी थे। उन दिनोमे नर और नारी नीति और धर्मका आंचल छोड़ चुके थे। वे दोनो ही कामुकताके पकमें लिप्त थे। नारियोमे पातिव्रत, शील और सकोचकी कमी हो रही थी। वे वधनोको तोड और लज्जाके आवरणको फेक स्वच्छन्द बन चुकी थी। पुरुषोमे दानवी वासनाका प्रावल्य था। वे आचार-विचार-शोलसयमका पल्ला छोड़ वासनापूर्तिको ही धर्म समझते थे। चारो ओर बलात्कार और अपहरणका तूफान उठ खडा हुआ था। चन्दना जैसो कितनी नारियोका अपहरण अहर्निश हो रहा था। जनमानसका धरातल आत्माको धवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। भाग-विलास और कृत्रिमताका जीवन हो प्रमुख था। मदिरापान, द्यूतक्रोडा, पशुहिंसा, आदि जीवनको साधारण बातें थी। बलिप्रथाने धर्मके रूपको और भी विकृत कर दिया था। भौतिकताके जीवनकी पराकाष्ठा थी। धर्म और दर्शनके स्वरूपको औद्धत्य, स्वैराचार, हठ और दुराग्रहने खण्डित कर दिया था। वर्ग-स्वार्थकी दुषित भावनाओने अहिंसा, मैत्री और अपरिग्रहको आत्मसात् कर लिया था। फलत समाजके लिये एक क्रान्तिकारी व्यक्तिकी आवश्यकता थी। महावीरका व्यक्तित्व ऐसा ही क्रान्तिकारी था। उन्होने मानव-जगतमे वास्तविक सुख और शान्तिको धारा प्रवाहित की और मनुष्यके मनको स्वार्थ एव विकृतियोसे रोककर इसी धरतीको स्वर्ग बनानका सन्देश दिया। महावीरने शताब्दियोसे चली आ रही समाज-विकृतियो को दूरकर भारतको मिट्टीको चन्दन बनाया। वास्तवमे महावीरके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वको प्राप्तकर धरा पुलकित हो उठी, शत-शत वसन्त खिल उठे। श्रद्धा, सुख और शान्तिकी निवेणी प्रवाहित होने लगी। उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वसे कोटि-कोटि मानव कृतार्थ हो गये। निस्सन्देह पतितो और गिरो'को उठाना, उन्हे गलेसे लगाना और करस्पर्श द्वारा उनके व्यक्तित्वको परिष्कृत कर देना यही तो क्रान्तिकारीका लक्षण है। महावीरको क्रान्ति जड नही थो, सचेतन थी और थी गतिशील । जो अनुभवसिद्ध ज्ञानके शासनमे चल मुक्त चिन्तन द्वारा सत्यान्येपण करता है, वही समाजमे क्रान्ति ला सकता है। पुरुषोत्तम महावीर पुरुपात्तम थे। उनके बाहा और आभ्यन्तर दोनो ही प्रकारके व्यक्तित्वोमे अलौकिक गुण समाविष्ट थे। उनका रूप त्रिभुवनमोहक, तेज सूर्यको भी हतप्रभ बनानेवाला और मुख सुर-नर-नागनयनको सनहर करने वाला था। उनके परमौदारिक दिव्य शरीरकी जैसी छटा और आभा थी, तीर्थकर महावीर और उनको देशना ६११
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy