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सरस व्यञ्जन लिया ताजा, तुरत वनवाइया खाजा ।
चरण तुम जजों महाराजा, क्षुधादु.ख पलकम भाजा ॥ द्वीप०
ॐ हो नेम्नम्बवत्र मान बनविने यो रोविनाशनाय नवेद्य ● ॥
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दोप तम नाग कारी है, सरस शुभ ज्योतिधारी है । होय दशदिश उजारी है, धूम्र मिस पाप जारी है ॥ द्वीप०
ही पचन्तक्षेत्रके मानसी बीम जिनेन्द्र या मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ।
सरस शुभ धूप दश अङ्गी, जराऊँ अग्नि के सही ।
कर्म की सेन चतुरङ्गी. चरण तुम पूजते अङ्गी ॥ द्वीप
ॐ ही पदनेन नानी जिनेन्द्र यो अकर्मविध्वचनाय धूप,
मिष्ट उत्कृष्ट फल ल्यायो, अष्ट अरि दुष्ट नसवायो । श्रीजिन भेंट करवायो, कार्य मनवांछित पायो ॥ द्वीप०
ॐ ह्रीं पद्मनेत्नम्बन्विदनक्षेत्र के नाम बोस जिनेन्द्रभ्यो नोक्षप्राप्तये फल० ।
द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ कर में नवीना है । पूजते पाप छीना है, 'भानु' मल जोड़ि कीना है ॥ द्वीपο
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ॐ हो पचनेरनन्वन्धिक्षेत्रके सातौ वीत जिनेन्द्रेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये भवं । प्रत्येक अर्थ ( अडिह छन्द )
आदि सुदर्शन मेरु तनी दक्षिण दिशा । भरत क्षेत्र सुखदाय सरस सुन्दर बसा ॥ तिहॅ चौवीसी तीन तने जिनरायजी । बहत्तर जिन सर्वज्ञ नमों शिरनायजी ॥ १ ॥
ॐ ही मुदानमर के दक्षिणदिना के भरत क्षेत्रसम्बन्धि तीनचोबीनी के बहत्तर जिनेन्द्र यो वर्षे निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥