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हैं पर सुख-दुःखमे भागीदार नही। उन्हे एकदूसरेके हितों की चिन्ता नही थी। जब पुरुषको भूख लगती थी, तो वह इधर उधर चला जाता था और तत्कालीन कल्पवृक्षो से अपनी क्षुधाको शान्त कर लेता था । नारीको जब भख सताती, तो वह भी निकल पडती और पुरुषके ही समान कल्पवृक्षों द्वारा अपनी क्षुधाको शान्त कर लेती । न तो पुरुषको भोजनादिके लिए अर्थव्यवस्था ही करनी पड़ती थी और न नारीको पुरुषके लिए भोजनादि ही सम्पन्न करने पड़ते थे। पिपासा शान्त करनेके लिए भी कूप, सरोवर आदिके प्रवन्धकी मारश्यकता नही थी। उसका भी शमन प्रकृतिप्रदत्त कल्पवृक्षो द्वारा हो जाता था। इस प्रकार लाखों वर्षों तक नर और नारी साथ-साथ रहकर भी पृथक् पृथक् रहे, वे एकदूसरेके सुख-दुःखमे भागीदार नही बन सके और न उनमे पारस्परिक समर्पणकी कल्पना ही आ सकी। वे एक दूसरेको समस्यामे भी रस नही लेते थे।
जब कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ, तो परिवार-सस्था प्रादुर्भूत हुई । नर नारी परस्पर सहयोगके बिना रह नहीं सकते थे। उनकी शारीरिक आवश्यकताएं भी प्रकृतिद्वारा सम्पन्न नही होती थी। पुरुषको अर्थार्जनके लिए प्रयास करना पडता और नारीको भोजनादि सामग्रियां तैयार करनी पड़ती । अब वे पूर्णतया पति-पत्नी थे, उनमे समर्पणकी भावना थी और वे एक दूसरेके प्रति उत्तरदायी थे। इस प्रकार परिवार-सस्थाको उत्पत्ति हुई। वस्तुत सस्कृति और सामाजिकताका विकास परिवारसे ही होता है।
समाजघटक परिवार
समाजका आधारभूत परिवार है। चतुर्विध सघमे श्रावक और श्राविका सघकी अवस्थिति परिवार पर ही अवलम्बित है। यह कामकी स्वाभाविक वृत्तिको लक्ष्यमे रखकर यौनसम्बन्ध एव सन्तानोत्पत्तिकी क्रियामओको नियन्त्रित करता है। भावनात्मक घनिष्ठताका वातावरण तैयार कर बालकोंके समुचित पोषण और विकासके लिए आवश्यक पृष्ठभूमिका निर्माण करता है। इसप्रकार व्यक्तिके सामाजीकरण और सास्कृतिकरणको प्रक्रियामें परिवारका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । परिवारके निम्नि लिखित कार्य हैं
१ स्त्री-पुरुष के यौनसबधको विहित और नियन्त्रित करना।
२. वशवर्धनके हेतु सन्तानकी उत्पत्ति, संरक्षण और पालन करना, मानवजातिके क्रमको आगे बढ़ाना।
३ गृह और गार्हस्थ्यमे स्त्री-सुरुषका सहवास और नियोजन । ५५२ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा