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व्यक्तिको सामाजिक जीवन यापन करनेकी परम आवश्यकता रहती है। -: समाज एक व्यक्तिके व्यवहार पर निर्भर नही रहता, किन्तु बहुसंख्यक मनुष्यों
के व्यवहारोंके पूर्ण चित्रके आधार पर ही उसका गठन होता है। दूसरे - शब्दोंमें यह माना जा सकता है कि समाज मनुष्योंकी सामुदायिक क्रियाओं, '". सामूहिक हितों, आदर्शो, एवं एक ही प्रकारको आचारप्रथाओपर अवलम्बित क है। अनेका व्यक्ति जब एक ही प्रकारकी जनरीतियों ( folk ways ) और
रूढियों ( Mores) के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो विभिन्न 'प्रकारके सामाजिक संगठन जन्म ग्रहण करते हैं। प्रत्येक सामाजिक सस्था "। समूहका एक ढांचा ( structure ) होता है, जिसमे कर्तव्याकर्तव्यो, उत्सवो,
संस्कारों एवं सामाजिक सम्बन्धोंका समावेश रहता है। साराश यह है कि " अधिक समय तक एक ही रूपमें कतिपय मनुष्योके व्यवहार और विश्वासो का
प्रचलन सामाजिक संस्थानों या समूहोंको उत्पन्न करता है। 'समोनको उत्पत्ति के कारण
" समाजको उत्पत्ति व्यक्तिको सुख-सुविधाओके हेतु होती है। जब व्यक्तिके
जीवनकी प्रत्येक दिशामें अशान्तिका भीषण ताण्डव वढ जाता है । भोजन, 1. वस्त्र और आवासको समस्याएँ विकट हो जाती है । भौतिक आवश्यकताएँ " - इतनी अधिक बढ़ जाती हैं, जिनको पूर्ति व्यक्ति अकेला रहकर नही कर सकता।
- उस समय वह सामाजिक संगठन आरम्भ करता है। असन्तोष और अधिकार1. लिप्सा वैयक्तिक जीवनकी अशान्तिके प्रमुख कारण हैं। भोग और लोभकी 'कामना विश्वके समस्त पदार्थोको जीवनयज्ञके लिए विष बनाती है। तथा । प्रभुताकी पिपासा, विवेकको तिलाजलि देकर कामनाओंको और अधिक वृद्धि - करती है। .....
'अहं' भावना व्यक्तिमें इतनी अधिक समाविष्ट है, जिससे वह अन्यके ; अधिकारोंकी पूर्ण: अवहेलना करता है। अहंवादी होनेके कारण उसकी दृष्टि
अपने अधिकारो एवं दूसरों के कर्तव्यों तक ही सीमित रहती है। फलतः । व्यक्तिको अपने अहंकारको तुष्टिके लिए समाजका आश्रय लेना पड़ता है। यही प्रवृत्ति समाजके घटक परिवारको जन्म देती है।
भोगभूमिके, प्रारम्भमें ही..युगलरूपमें मनुष्य जन्म ग्रहण करता था। इसा योगलिक परम्परासे परिवारका विकास हा है। मनुष्य अकेला नहीं है। वह स्वय पुरुष है और एक स्त्री भी उसके साथ है। वे दोनो साथ घूमते हैं भार साथ साथ रहते हैं। उन दोनोका केवल दैहिक सम्बन्ध है, पति-पत्नीके म.पवित्र पारिवारिक सबंधका परिस्फुरण नही है। वे साथी तो अवश्य
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