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दूसरा साथी उसके अन्तर्द्वन्द्वोंको सस्नेह सहयोगी बन प्रकाश दिखलाता है और पराभवके क्षणोंमे उसे विजयमार्ग की ओर ले जाता है । अतएव वैयक्तिक जीवनको सुखी, शान्त और समृद्ध बनानेके लिए समाजकी आवश्यकता रहती है । व्यक्ति समाजके सहयोगके बिना एक कदम भी आगे नही बढ सकता है। समाज : व्युत्पत्ति एवं अर्थविस्तार
समाजशब्द सम् + अज् + घञसे निष्पन्न है । अज् धातु भ्वादिगणी है और इसका अर्थ गति और क्षेपण है । चुरादिगणी मानने पर 'दीप्ति' अर्थ है । पर यहाँ "सवीयतेऽत्रेति" अर्थात् एकत्रीकरण अभिप्रेत है । अमरकोषके अनुसार "पशुभिन्नाना सघ" पशु-पक्षी से भिन्न मानवोका समुदाय या सघ समाज है । समाजशब्द व्यापक है । एक प्रकारके व्यक्तियोके विश्वास एव स्वीकृतियाँ समाजमे विद्यमान रहती है ।
समाज सम्बन्धोका एक निश्चित रूप है । मानवजीवन सृष्टिका सबसे वडा विकसित रूप है । कर्त्तव्यकर्मोका निर्वाह जीवनके विकासका सर्वोत्तम रूप है । समाजका गठन जीवन्त मानवके अनुरूप होता है । समाजके लिए कुछ मान्य नियम या स्वय सिद्धियां होती हैं, जिनका पालन उस समुदायविशेषके व्यक्तियोको करना पडता है । जिस समुदायमे एक-सा धर्म, सस्कृति, सभ्यता, परम्परा, रीति-रिवाज समान धरातल पर विकसित और वृद्धिंगत होते है, वह समुदाय एक समाजका रूप धारण करता है । विश्वबन्धुत्वकी भावना जितनी अधिक बढती जाती है, समाजका क्षेत्र भी उतना ही अधिक विस्तृत होता जाता है । भावनात्मक एकता ही समाज-विस्तारका घटक है । मनुष्यताका विकास क्षुद्रसे विराट्को ओर होता है । सुख - दु: खकी धारणाओको समत्व रूपमे जितना अधिक बढनेका अवसर मिलता है, समाजकी परिधि उतनी ही बढती जाती है । अत: समाजका विकास प्रतिदिन होता जारहा है ।
व्यक्तिकेन्द्रित चेतना जब समष्टिकी ओर मुड जाती है, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वका संकल्प जागृत हो जाता है, पारस्परिक सुख-दुःखात्मक अनुभूतिकी सवेदनशीलता बढती जाती है, तो सामाजिकताका विकास होता जाता है। चिन्तन, मनन और अनुभवसे यह देखा जाता है कि मनुष्य अपने पिण्डकी क्षुद्र इकाईमे बद्ध रहकर अच्छे जीनेके ढगसे जी नही सकता; अपना पर्याप्त भौतिक और बौद्धिक विकास नही कर सकता । जीवनकी सुख-समृद्धि - का द्वार नही खोल सकता और न अध्यात्मकी श्रेष्ठ भूमिका तक पहुँच सकता है । अकेला रहनेमे मनुष्यका दैहिक विकास भी सम्यक्तया नही हो पाता । अतएव ५५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा