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________________ ८२ चौपाई १६ मात्रा I रतनन्त्रय ॥३॥ जाप ध्यान सुथिर न आवै, ताके करमचन्ध कट जावै । तास शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावें ॥२॥ ताकौ चहुँगतिके दुख नाहीं, सो न परं भव-सागर माहीं । जनम- जरा मृत दोष मिटावें, जो सम्यक रतन त्रय ध्यावें ||३|| सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रतनन्त्रय यांवे ॥४॥ तीन लोकके सुख विलसेई । जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावै ॥ ५ ॥ परमानन्द दशा विस्तारै । जो सम्यक् रतन त्रय वचन कहो नहिं ध्यावै ॥ ६ ॥ जाय । सुसदाय ॥७॥ सोई शक्र - चक्रिपद लेई, सो रागादिक भाव बहावै, सोई लोकालोक निहारै, आप तिरै औरन तिरवावै, एक स्वरूप प्रकाश निज, तीन भेद व्योहार सब, 'द्यानत' को जैन पूजा पाठ सप्रह ॐ ह्रीं सम्यकूत्नत्राय महाघं निर्वपामीति स्वाहा । आत्म निर्मलता केवल शास्त्र का अध्ययन ससार बन्धन से मुक्त होने का राम-राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है । शास्त्रों का बोध होने पर भी जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता । मार्ग नहीं । तोता इसी तरह बहुत से - 'वर्णी वाणी' से
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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