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श्री जिनवाणी भजन
जिनबराणो माता दर्शन को बलिहारियां ॥ टेक ॥ प्रथम देव अरहन्त मनाऊ, गणधरजी को ध्याऊ । कुन्दकुन्द आचारज स्वामी, नितप्रति शीश नवाऊ ॥ ए जिनवाणी० योनि लाग चौरासी मांही, घोर महा दुःख पायो ।
तेरी महिमा सुन कर माता, शरण तिहारी आयो ॥ ए जिनवाणी० जाने मागे शन्नो लोनी, अष्टकर्म क्षय कीनो ।
जामन मरण मेट के माता, मोक्ष महाफल लोनो ॥ ए जिनवाणी ० बारबार में विनऊ माता, मिहरजु मोपर कीजे ।
पाददास की अज यही है, चरण दारण मोहि दीजै ॥ ए जिनवाणी०
जिनवाणी स्तुति
वीर हिमाचलते निकसी गुरु गौतम के मुख कुण्ड ढरी है। मोह महाचल भेद चली जग की जडता तप दूर करी है ॥ ज्ञान पयोनिधि माहि री बहु भक्ति तरङ्गनि सां उछरी है । ता शुचि शारद गङ्ग नदी प्रति में जजुरी निज शीश धरी है ॥ १ ॥ या जग मन्दिर मे अनिवार अज्ञान अन्धेर यो अति भारी । श्रीजिन की धुनि दीपशिसा सम जो नहि होत प्रकाशन हारी ॥ तो किस भाति पदारथ पाति कहा कहते रहते अविचारी । या विधि सन्त कहे धनि है धनि हैं जिन वेन वडे उपगारी ॥ २ ॥