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समाधिमरण भाषा बन्दों श्री मरहत परमगुरु, जो सबको सुखदाई ,
इस जग मे दु ख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई । अब मैं मरज करू प्रभु तुमसे, कर समाधि उर माही । मन्त समय में यह वर मागू, सो दोज जग-राई ।। ५ ॥ भव भव में तनधार नया मैं, भव भव शुभ सग पायो, भव भव में नृपरिद्धि तई में, मात पिता सुत थायो। भव भव में तन पुरुपतनों धर. नारी हूँ तन लीनो , भव भव मे मैं मया नपु सक, मातम गुण नहि चीन्हो ॥ २ ॥ भव भव मै सुरपदवी पाई. ताके सुख अति भागे , भव मद मे गति नरकतनो धर, दुख पायो विधि योगे। भव मद में तिर्यञ्च योनिधर, पायो दुख जति भारी, भव मद में साधर्माजनको, सग मिल्यो हितकारी ।। ३ ।। भव भव मे जिनपूजन कोनी, दान सुपात्रहि दीनो , भव भव में में समवसरण मे, देखो जिनगुण भीनो । एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यकगुण नहिं पायो , नहिं समाधियुत मरण कियो मैं, तात जग भरमायो ॥ ४ काल जनादि भयो जग भ्रपते, सदा कुमरणहि कीनो , एकधार हूँ सम्यकयुत मैं, निज मातम नहिं चीनी । जो निज पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दु ख कोई . देह विनासी में निज भासी, ज्योति स्वरूप सदाई ॥ ५ ॥ विषय कषायन के वश होकर, देह जापनो जान्यो , कर मिथ्या सरधान हिये विच, मातम नाहि पिछान्यो । यो कलश हियधार मरणकर, चारों गति भरमायो , सम्यकदर्शन-ज्ञान-चरन ये हिरदे मे नहिं लायो ।। ६ ।। अव या अरज करू प्रभु सुनिये, मरण समय यह मांगो, रोगजनित पीडा मत होवे, अरु कषाय मत जागो। ये मुम मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै , जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यामद छीजे ।। ७I