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जन पूजा पाठ सग्रह
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काय त्यजन सय होय काय सबको दुःखदाई ॥ पूर दक्षिण नमूँ दिशा पश्चिम उत्तर में जिनगृह वन्दन करूँ हरु भवतापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूँ नयूँ मस्तक कर धरिकैं । आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरिकै ॥ तीनलोक जिनभवन मांहि जिन हैं जु अकृत्रिम | कृत्रिम हैं द्वय अर्द्ध द्वीप नाही वन्दों जिम ||२७|| आठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणं । च्यारि शतक पर असीएक जिनमन्दिर जाणूं ॥ व्यन्तर ज्योतिष सांहिं संख्य रहिते जिनमन्दिर । ते सव वन्दन करूँ हरहुँ मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिक सम नाहिं और कौऊ वैर मिटायक । सामायिक सम नाहिं और कोऊ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥२६॥ जे भवि आतमकाज करण उद्यम के धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग रोप मदमोहक्रोध लोभादिक जे सब । बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय तातैं कीज्यो अब ||३०||
इति सामायिक पाठ समाप्त |
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